ज़ाहिर
ज़ाहिर
गुज़ार दो घड़ी मेरे साथ भी,
कभी देख रात को ढलते हुए मेरे साथ भी,
हर कदम बढ़ाना है तेरे साथ,
तेरा हाथ थाम ज़िन्दगी को जीना है तेरे साथ,
सीने से तुझे लगा कर हर ज़ख्म को मेरे मरहम मिल जाएगा,
रूह से रूह का एक पाक सा किस्सा बन जाएगा
गुज़ार दो घड़ी मेरे साथ भी,
कभी देख रात को ढलते हुए मेरे साथ भी,
तेरे करीब हो कर मैंने हिफ़ाज़त को हर पल महसूस किया है,
तेरी निगाहों के आईने में मैंने अपना अक्स देखा है,
तू धुंध के मौसम में पहली भोर सा है,
तू तपती धूप में पेड़ की छाँव सा है,
गुज़ार दो घड़ी मेरे साथ भी,
कभी देख रात को ढलते हुए मेरे साथ भी,
मेरी चूड़ियों में खनक है तेरे ज़िक्र की,
मेरी खाली हथेली में जो समा गई एक दुआ है वो तेरे नाम की,
तू लफ़्ज़ों में बिखरा है बन कर अन छुए गीत की तरह,
तुझे चाहा है इस दिल ने मुसाफिर चाहे मंज़िल को जिस तरह,
गुज़ार दो घड़ी मेरे साथ भी,
कभी देख रात को ढलते हुए मेरे साथ भी,
ख्वाबों की रुत ने मुझे घेरा है,
मन भरता नहीं जिसे निहारे वो चेहरा तेरा है,
बांध कर घुंघरू तुझ संग झूमने को मन बेताब है,
इश्क़ ज़ाहिर करने को दोनों के दिल बे करार है,

