ये रोज़ की दौड़ - ज़िन्दगी
ये रोज़ की दौड़ - ज़िन्दगी


ये रोज़ की दौड़
जिसे हम ज़िन्दगी कहते हैं,
क्यों आराम नहीं
अपने ही चौबारों में !
ये ऊँची इमारतें
और इनमे कैद हम,
मजबूर कर रखा है
अपने ही औज़ारों ने !
ये रोज़ की दौड़
कि राशन की तलाश
कहीं ज़िन्दगी न गुज़र जाए
इन्ही कतारों में !
पर निकलते ही इन बच्चों की
ये घोंसला छोड़ने की चाहत,
हर माँ का ये कहना कि तू है एक हज़ारों में,
आज उसी बच्चे की ये सिसकती सांसें,
दम न तोड़ दें इन ऊँची दीवारों में !
अजी, आज कल तो नानी के घर में
चीज़ें टूटने का डर होता है,
हवा दी जाती है
बचपन में ही गुब्बारों से !
हर महीने की तनख्वाह से
कुछ सिक्के बचाये जाते हैं,
सोच कर कि कुछ दिन
बिताये जाएंगे पहाड़ों में...
चंद लम्हों की मोहलत मांगी जाती है
अपनी ही ज़िन्दगी से,
परन्तु सुकून लेने ही कहाँ दिया है
इन लेनदारों ने !
जब तक ठोकर न खायी,
ढूंढते रहे दोस्ती,
समझ न पाए कि दोस्त
कहाँ मिलेगा इन कलाकारों में !
इस दौड़ के हर मोड़ पर
सोच के कदम रखना,
ज़माने को क्या समझाएं जब
समझा नहीं अपने ही रिश्तेदारों ने !
लंका जला तो डाली थी,
ये रावण के अवतार कैसे;?
अब राक्षसों को तो हमने ही पूजा है,
क्या गिला हो नए थानेदारों से !
व्यावहारिक होते - होते
भूल गए हम खुद को
अब तो शादियां भी होने लगी हैं
इश्तेहारों से !
बिकता तो जनाब
यहाँ सब कुछ है
बेचने वालों ने तो नीलाम किया है
भगवान को भी बाज़ारों में !
गोलियों से सिर का
दर्द तो चला जाता है,
दिल का बोझ हल्का होता है
बस पुराने यारों से !
ख़ुशी तो जी बस इतनी है
जब भी सुकून की तलाश में निकलें हैं,
किसी ने आज तक
धर्म नहीं पूछा मज़ारों में...!