कभी हिंदी कभी उर्दू
कभी हिंदी कभी उर्दू
हम सब ने बोली है
कभी हिंदी कभी उर्दू
अहम से नहीं
हम से निकली है
कभी हिंदी कभी उर्दू
सियासत -ए- दांव पर
बिखरी पड़ी हैं हर तरफ लाशें,
शाह-ए-नज़र में
इंसान कोई नहीं
गिनती में हैं
कोई हिंदी कोई उर्दू
मेरे मज़हब ने तो
जीने का सलीका बताया था मुझको
पर देखो ज़रा मज़हब की आंच में
कैसे जलते हैं
कभी हिंदी कभी उर्दू
जहाँँ नुक्ते के बदल से
खुदा हो जाते हैं जुदा
जहाँ मौत देकर
मांगी जाती हो ज़िन्दगी की दुआ
ऐसी शिकाफत-ए-शिकालत में
बेबस है
कभी हिंदी कभी उर्दू
इस सरज़मीं पे
ज़ुबान-ए-मोहब्बत सही
या दास्तान-ए-सितम सही, मेरे रहनुमा ?
याद रख तेरे बाद के
नस्ल की कहानी
तेरे आखिर से ही शुरू होगी...!