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Rakesh Kumar

Abstract Romance Classics

4.5  

Rakesh Kumar

Abstract Romance Classics

एक जमीं भी हो कोई नया आसमाँ भी हो

एक जमीं भी हो कोई नया आसमाँ भी हो

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एक जमीं भी हो कोई नया आसमाँ भी हो

ऐ दिल चल वहाँ जहाँ मेरे हिस्से का जहां भी हो 

दयारे-गैर सा गुजर जाए ऐसी रौशन-ए-आफताब न हो 

चल वहाँ जहाँ अंधेरा हो पर मुझपे थोड़ा मेहरबाँ भी हो 

 

एक बेचैनी सी है, मानो आब-ए-सराब हो जिंदगी 

चल वहाँ जहाँ सच हो अगर रेगिस्तां भी हो 

सरगोशियों में लिपटी हुई फिर से कोई शाम हो 

चल वहाँ जहाँ हर शब्द थोड़ा सर्द हो थोड़ा धुआँ धुआँ भी हो 

 

आहिस्ता आहिस्ता से पास आयें... फिर चुम लें... फिर सो जाएं 

बरसों बाद एक गुफ़्तगू ऐसी.. फिर से हमारे दरमियाँ भी हो 

एक जमीं हो कोई नया आसमाँ भी हो 

ऐ दिल चल वहाँ जहाँ मेरे हिस्से का जहां भी हो।


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