प्रकृति की आवाज
प्रकृति की आवाज


कोई तुम्हारी प्राण प्रिया को बुरी नजर से देखेगा तो
बोलो क्या तुम मौन रहोगे?
कसे फब्तियाँ कोई अगर तो घूँट जहर का पी भी लोगे,
किंतु कोई स्पर्श करेगा….
बोलो क्या तुम मौन रहोगे?
मैं प्रकृति तुम बालक मेरे, देख तुम्हें मैं मुस्काती थी;
बाल सुलभ छोटी शरारतें, सदा मेरे मन को भाती थी;
देख मुझे हर्षित नभ मेरा, तुम पर अपना नेह लुटाता;
और आशीष स्वरूपी बूँदों से तुमको खुशियाँ दे जाता,
किंतु तुम हो गए स्वार्थी, लगे मुझे फिर दुख पहुँचाने;
क्रोध मेरे आकाश को आया और लगा वो तुम्हें दिखाने
बहुत जतन से मना रही हूँ कह कर कि तुम बदल जाओगे
किंतु तुम जो न चेताये…
बोलो कब तक वो सह लेगा?
ये पादप मेरे आभूषण, मेरे बाबा नें मुझे पहनाये;
और सिंचित कर मेरे प्रियतम ने नेह जल से ये सदा बढ़ाये,
पड़ी जरूरत तुमको तुमने कुछ ले लिए चलो सही था,
थी उम्मीद नये कुछ ला कर पहना दोगे
पर आधुनिकीकरण की अंधी दौड़ में तुम ऐसे उलझे सब भूल गए,
एक-एक कर मेरे गहने तुम्हारी महत्वाकांशाओं की भेंट हुए
नित कंकरीट का बढ़ता बोझ भी दिल पर मैं सह लेती
अगर साथ में वृक्ष भी होते
पर तुम मुझको सिर्फ मरुस्थल कर छोड़ोगे तो बोलो कब तक कोई सहेगा?
मेरे गहने तुमको शुद्ध वायु देते थे
और तुम पर आने वाली विपदाओं को भी हर लेते थे,
किंतु तुमने इनका मूल्य नहीं पहचाना,
अभी भी जागो वर्ना होगा फिर पछताना,
हरा-भरा मुझको रहने दो, हित इसमें ही निहित तुम्हारा;
वर्ना कल जो भोगोगे तुम, दोष न उसमें कोई हमाराl
गहन विचारो…
दूषित वायु, क्रोध हमारा सब मिल कर आघात करेगा;
तब क्या खुद को बचा सकोगे?