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Sudhir Srivastava

Abstract

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Sudhir Srivastava

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हे कृष्ण!अब मौन तोड़ो

हे कृष्ण!अब मौन तोड़ो

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हे कृष्ण! अब मौन तोड़ो

मसखरी छोड़ फिर नयन उघारो,

आज धरा पर कौरवों का 

तांडव नृत्य हर ओर चल रहा है,

द्रौपदी का चीर हरण अब रोज हो रहा है।

एक द्रौपदी का चीर बढ़ाने का

इतना गर्व अब तक तुम्हें क्यों है?

क्या आज की नग्न होकर 

लज्जित होती द्रौपदी तुम्हें दिखती नहीं है।

क्या तुम्हें भी कौरवों ने खरीद लिया है

या किसी राजसिंहासन का लालच दे दिया है।

आखिर कुछ बोल क्यों नहीं रहे हो?

मुंह में मक्खन जमा है 

जो मुंह खोल नहीं रहे हो,

द्रौपदी की करुणा पुकार क्यों नहीं सुन पा रहे हो?

कौरवों की बढ़ती भीड़ में द्रौपदी

आये दिन लुट पिट रही है,

उस समय तो पांडव मौन थे

आज के पांडव गिरगिट- सा रंग बदल रहे हैं,

तेरी मेरी द्रौपदी में बांट राजनीति का खेल कर रहे हैं

द्रौपदी को अब तो गेंद समझ लिया हैं

पर क्या तुम पर भी राजनीति का रंग चढ़ गया है

यदि नहीं तो फिर

तुम्हारी बंशी का स्वर सुनाई क्यों नहीं दे रहा है?

या तुम्हारा खुद पर से विश्वास उठ गया है

या आज के नेताओं, अपराधियों का खौफ

तुम्हारे अंदर तक बैठ गया है।

हे कृष्ण! मुझे तुम्हारी कृपा करुणा की चाह नहीं है,

पर तुम्हारा मौन भी अब स्वीकार नहीं है,

हे कृष्ण! अब मौन तोड़ो

माखन चुराना, बंशी बजाना, 

गोपियों संग नृत्य करना बंद करो,

अपनी नैतिक जिम्मेदारी का निर्वाह करो

कलियुगी दुर्योधन दु:शासन पर चक्र का प्रहार करो

चीरहरण के बढ़ते खेल का अब तो तुम प्रतिकार करो।

या आज की द्रौपदियों से क्षमा मांग

अपनी बेबसी का इजहार करो

या फिर चीर बढ़ाने के अपने दायित्व का निर्वाह करो।

अथवा तुम भी सबकुछ देखकर 

खुद ही खुद का अपमान कर मौन बने रहो,

अपना नाम खराब करते रहो।

हे कृष्ण! फैसला तुमको ही करना

मौन तोड़कर कुछ करना है

या मौन रहकर द्रौपदियों का चीरहरण होते 

यूं ही देखते रहना है,

अंतिम निर्णय आपको लेना है। 



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