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Ram Binod Kumar

Abstract Inspirational

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Ram Binod Kumar

Abstract Inspirational

टाइपराइटर

टाइपराइटर

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काश ! ज़िन्दगी में होती,

टाइपराइटर जैसे पन्ने ,

मनचाहा कभी कुछ लिख लेता।

पर ऐसा तो कुछ भी नहीं है।

दुनिया मेरी सदा के लिए नहीं,

यह तो कुछ दिन का बसेरा है।

देखो वक्त बदलता जा रहा है,

कभी शाम तो कभी सवेरा है।

हम बांध कर ही रखना चाहे,

अपनी सभी यादों को - पर सोचो...!

यादों के सहारे कोई कैसे जी पाएगा,

सुख- दुःख की परिभाषा पहचाने!

सत्य इस दुनिया के भी जानें,

कहां थे हम अपनी उम्र से पहले ?

उम्र पूरी होने पर कहां जाएंगे ?

देखें अपने आसपास, नजर दौड़ा !


किसे - कैसे, सुख मिल रहा ?

कोई क्यों - कैसे दुखी है ?

हम हैं, मुलायम बिस्तर पर,

हवाएं हैं, हमारी उंगलियों पर।

न मक्खी है, और न मच्छर ही,

बस ! अपनी चैन की नींद है,

जो चाहें ,खाएं सब पकवान।

सुस्वादु व्यंजन पड़े हैं, एक से एक,

मित्र-बंधु ,पुत्र - पत्नी सभी पास।

रूप - रस, गंध - शब्द और स्पर्श,

में हैं हम, अब दिन-रात डूबे हुए।

पर सोच ! एक पत्ता खड़कने पर भी,

जीवन में होता है, कितना दुख ?

आखिर यह सब ................!

कब तक, कैसे- कहां टिकेगा ?

दुनिया मेरी, सदा के लिए नहीं,

बस कुछ दिन का, बसेरा है।


हम कभी विचारें, उनको भी,

जो ग़मों के साए में, जी रहे हैं।

कुत्ते-बिल्ली अन्य पशु और जीव,

क्या वे भी, हमारे जैसे नहीं हैं ?

आखिर क्यों ? उन्हें इतनी सारी,

यातनाएं, हर रोज मिल रही है ?

न भोजन -वस्त्र, घर न सुविधाएं,

धूप - वर्षा , सर्दी, मक्खी-मच्छर से,

सदा वास्ता बना रह है उनका।

उनके दुखों को, अब सोंचो .....!

कौन- कैसे मिटाएं............... ?

उनके सुखों को अब सोंचो ....!

कौन कैसे बढ़ाएं ..............?

किसी ने खूंटे से, बांध दिया,

पानी भी, मांग नहीं वे सकते।

क्या हमारी तरह से उन्हें भी,

सुख-चैन अच्छी नहीं लगती है ?

ऐसे भी कई हैं, जीव जिन्हें,

कई दिनों से, भोजन नहीं मिला है।

कूड़े और पॉलिथीन- गंदगी खाकर,

वे अपनी अब, जानें गंवा रहे हैं।

यदि कुत्ते को- मिलता नहीं खाना,

मजबूर होकर ,भूख से वह बेचारा।

इंसानी मल भी खा लेता है - सोच !

क्या उसे अन्य भोजन ..........!

अच्छे नहीं लगते हैं...............?

देखें अपने आसपास, नजर दौड़ाएं,

आखिर क्यों ....................... ?

कोई इतना, मजबूर हो जाता है ।

कुछ भी मिलता, कैसे खा लेता है ?

वैसे तो इस दुनिया में ऐसे और भी,

एक-दो बड़े जीव और भी करते हैं।

पर सोचे आखिर क्यों...............?

उन्हें- यह किस बात की सजा है ....?


हम सभी, बस चले जा रहे हैं ,

आंख बंद करके, बढ़े जा रहे हैं ।

दुनिया मेरी, तो सदा के लिए नहीं,

बस कुछ दिन का, यह बसेरा है।

रोज-रोज सब से, झूठ बोलते हैं,

करते रहते हैं अपनों से भी बेईमानियां ,

धोखा देने, और गला काटने से भी,

अब तो चुकता नहीं इंसान ,

अपने मां-बाप गुरु, तक को भी,

हम धोखा, देते चले जा रहे हैं।

आखिर क्यों , ऐसी जिंदगी ?

क्यों हम ! जीए जा रहे हैं ?

क्यों हमें , खुद पर भी कभी ?

आखिर शर्म क्यों नहीं आती ?

आखिर अब तक, क्या मिला ?

हम तो इतने बड़े हो गए हैं ।

बस खाना - डरना और जनना,

इतने में ही, इंसान क्यों पड़ा है?

पेट - भरना और प्रजनन तो ,

सारे जीव भी कर लेते हैं।

आखिर हम कब उठेंगे, इस स्तर से ?

कब तक मुक्ति पाएंगे हम ?

सुख-दुख के इस भंवर से ।


क्या जन्म हमारा सिर्फ बस,

इसीलिए ही क्या हुआ है ?

सिकुड़ते और डरते हुए बस,

छोटी-छोटी सी बातों के लिए,

क्या हम इसी तरह, मर कर भी,

मुर्दों की तरह जीए जाएंगे ?

हम जागें इन सड़े - गलिजों से निकले,

निकल कर इस बदबू से, अब तो फिर से,

खुली हवा में भी ,जी भरकर सांस ले।

हम इस दुनिया के बड़े वारिस हैं,

ईश्वर के हैं हम, ज्येष्ठ बुद्धिमान संतान,

बातें बहुत है, अब आप भी कुछ विचारें।

आपका है जीवन ,आप भी खुद संवारें।

काश ! ज़िन्दगी में होती टाइपराइटर ,

जैसे पन्ने , मनचाहा कुछ लिख लेता ।



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