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नविता यादव

Abstract

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नविता यादव

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दीमक का स्वरूप

दीमक का स्वरूप

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चंद दीवारों पर दीमक लग रही है

हवाओं ने भी रास्ता छोड़ दिया है

क्यों दरवाजों की किरकिरा ने की आवाज़ गुम है

ये क्या हुआ कि लोगों ने आना जाना छोड़ दिया है।


कभी लगती थी आंगन में महफ़िल जहां

कहानी- किस्सों का माहौल होता था

रात की चांदनी में शीतलता ही कुछ और होती थी

बुजुर्गो की खासने की आवाज़

सुन सब की मोजुदगी स्थिर होती थी

ये क्या हुआ कि वो आवाज़ कहीं गुम है

घर की चौखट अपने आप में गुमसुम है।


मिल सब सजते थे और संवारते थे

एक दूसरे का सहारा बन आगे बढ़ते थे

खुली बांहों को फैला सबका स्वागत करते थे

दिल और चेहरे के भावों को एकसा रखते थे

ये क्या हुआआज सब संकुचित है

किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है।


आगे बढ़ते हैं इंसान पीछे छोड़ते है इंसान

आगे पीछे के चक्कर में

मतलब की भाषा बोलता है इंसान

यही दस्तुर जिंदगी हकीक़त बन गई है

अपनों के लिए भी सीमा तय हो गई है

इसलिए घर के साथ-साथ

रिश्तों में भी दीमक सी लगने लगी है।


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