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Dr Renu devi

Abstract

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Dr Renu devi

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धरती की व्यथा

धरती की व्यथा

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पर्यावरण प्रदूषण से व्यथित धरती माँ की पुकार के रूप में प्रस्तुत है स्वरचित कविता-


हवाओं ने मेरे केशों को महकाया था।

पुष्पों और पल्लवों से प्रकृति ने मुझे सजाया था।

दुल्हन की तरह प्रतिपल सजी रहती थी।

मानव है पुत्र मेरा, गर्व से ये कहती थी।

हे दुष्ट मानव! तूने ही उजाड़ दिया मेरा सुहाग।

नव पल्लव सब नोच डाले, कुचल दिया मेरा अनुराग।

है तुझसे इतना प्रेम मुझे, इसलिए सर्वस्व ये सहती हूँ।

होकर खिन्न आज मैं मनवा, व्यथा स्वयं की कहती हूँ।

तुम्हारे दिए घावों ने मेरी घायल कोख जला दी है।

अब विज्ञान के राक्षस ने जकड़ा, क्या यही मेरी आज़ादी है???

प्राचीन हवाओं ने मृतकों को भी जीवन दान दिया है।

किन्तु आज मेरी इन श्वांसों ने भी विष का पान किया है।

आँचल है मेरा तार -तार, अब कैसे तुम्हें छुपाऊं मैं???

सूरज की किरणों से आज, स्वयं नग्न जल जाऊं मैं।

गंगा की भी धार विषैली, इसे कैसे तुम्हें पिलाऊँ मैं??

अपना सीना चीर तुम्हें, और क्या दिखलाऊँ मैं??

तुम्हें यूँ प्यासे देख मेरा सीना तक फट जाता है।

किन्तु व्यथा मेरी ये सुनने को, एक बादल तक नहीं आता है।

मैं प्यासी! बच्चों की प्यास बुझाने को,

फैलाऊं यूँ आँचल को,

किन्तु जर्जर इस आँचल में,

समेट ना पाऊँ उस जल को।

फिर रोती हूँ, सिसकती हूँ, पूछती हूँ अपने आप से।

वह कौन है??? वह कौन है ?

जो मुक्ति दिलाए, अपनी माँ को इस शाप से।

अब तो केवल इंतज़ार है, फिर से उसी बहार का,

जिसमें सुन संगीत मल्हार का,

बरसें अमृत धार।

खिल उठें नव पल्लव, महकें हवाएं,

लेकर तुम्हें मैं आँचल में, फिर दूं वही दुलार।

इच्छाओं, आशाओं के रंगों की ये अल्पना है

वो सत्य था-२किन्तु क्या ये मेरी कल्पना है-२?????



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