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Rajeshwar Mandal

Abstract

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Rajeshwar Mandal

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कुर्सी

कुर्सी

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कुर्सी टूटी हुई नहीं है 

लेकिन बैठने पर चरचराती है

ऐसा लगता है कि वह

मन ही मन गरीयाती है

जरा सी करवटें बदलने पर हिलती है

जैसे गिरा देना चाहती है मुझे 


एक दिन मैंने पुछा

भाई क्यों ऐसा करते हो

पहले मुस्कुराई 

फिर बोली

तुम पागल हो 

कुर्सी बैठने की चीज है 

न कि माथे पर लेकर चलने की


तुम्हारे जैसे कितने आये और गये

पर सबने अपने काम से काम रखा

और एक तुम हो

जो कुर्सी मिलते ही पगला गये हो

न खुद की महिमा

न कुर्सी की गरिमा

बे वजह बात का बतंगड़

जिसका कोई आदि न अंत


मुझे तो लगता है

या तो तुम मूर्ख हो 

या किसी वैसे परिवार से

जिसका मैं वर्णन करना

मुनासिब नहीं समझती ।



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