बेबस निगाहें
बेबस निगाहें
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ये भली भांति पता है मुझे
तुम नहीं हो मेरे पास
मगर पता नहीं क्यों
ये बेबस निगाहें
हरवक्त हर पल
खोजती है तुमको
तुमको और सिर्फ तुमको
कभी अकेले में
कभी मेले में
कभी झिलों में
कभी पहाड़ों में
और ताकते निहारते
थक जाती है जब अंखियां
निकल आती है फिर
नयनों से नीर
और कर जाती है
छलनी छलनी बेतरतीब
इस कोमल हृदय को ।
मैं जानती हूं
न मैं लैला
न मैं हीर
वैसे तो इस जगत में
हजारों लाखों की भीड़
पर कोई नहीं तूझ सा
किसको सुनाऊं
मन की पीड़
जो भी हो जैसे भी हो
मेरे लिए
तुम ही अल्लाह
तुम ही पीर
हर पल नयना तकती राहें
कभी सुबकती
कभी भरती आहें
चले आओ चले आओ
जहां भी हो
दरस दिखा जा
तरस खा जा
आ जाओ आ जाओ
जमाने की निगाहों से महफूज
पत्थर बनी इस अहिल्या को
एक स्पर्श देकर
अभागिन से
नारी बना जा
मैं भी कह सकूं
मैं भी हूं किसी की
ऐसा अहसास दिला कर
इस वीरान मन को
अपनी प्यारी बना जा ।
