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Rajendra Rajjan saral

Abstract

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Rajendra Rajjan saral

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सवैया - बृज भाषा

सवैया - बृज भाषा

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सींव कलभ रति पति जैसी हरि की बहियां सोहैं अति प्यारी ।

मोतियन माल उरै या लसै व बसै मुस्कान हियै की कटारी ।

कम्बु समान ग्रीव उनकी, अरु भौहैं कमान सी लागत न्यारी।

वा छवि आज बिलोकल शाम जू रज्जन कूं मिली सम्पत सारी ।।



लोचन दोउ रघुसिंघन्ह के सखि देखत जिमि सरोज रतनारे ।

लतियन की पतियन विचहूंँ निज लोचन सिय दोउ सिंह निहारें ।

भूलि गई सुध बुध तनकी इन्हें कौन सो साँचन मा विधि ढारे ।

खोजि रहे रज्जन नैना दशरथ के बांँके राम दुलारे ।।


राम सो धीर न वीर लखन सम देखि नहीं अस सुंदरताई ।

आजु चले सिय ब्याहन को सँग विश्वामित्र रहे मुनिराई ।।

भाग जगे मिथिला पुर के जो आज धरे पग श्री रघुराई।

धाइ विदेहँ चले भेंटन अरु भेंटत ही सुर सम्पत पाई ।।


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