दर्पण
दर्पण


खूबसूरत लगता था दर्पण, जब मैं उसमें निहारा करती थी,
स्वयं को कभी किसी, अभिनेत्री से कम ना आंका करती थी,
कभी बचपन, कभी जवानी का अल्हड़पन, देख खुश होती थी,
कभी काजल, कभी लाली लगा, खूबसूरती पर नाज़ करती थी,
किंतु अब जब भी दर्पण देखती हूं, सब पुराना सा लगता है,
दिखता है प्रतिबिंब वैसा, जैसा मुझे नहीं गंवारा करता है,
सोचा खराब हो गया दर्पण मेरा, नया दर्पण फिर मैं ले आई,
किंतु नहीं बदला प्रतिबिंब, पुराने खंडहर जैसी ही नज़र आई,
ढल गई जवानी मेरी, तब यह बात समझ में मुझे फिर आई,
स्वीकार कर लिया मैंने, पुराने दर्पण को फिर वापस ले आई,
बदल गया नज़रिया मेरा, उस प्रतिबिंब से मैंने प्रीत लगाई,
खंडहर नहीं, पुरानी मजबूत इमारत लगती है सोच में हर्षाई,
यही तो वह दर्पण है, जिसके आगे खुशियों के नीर बहाए,
वक्त पड़ा जब गम का, दुख के आंसू भी इसमें छलकाये,
सच्चा साथी है यह मेरा, झूठ कभी ना मुझको दिखलाएगा,
जब भी उसके सम्मुख आऊंगी, सच्चाई से ही मिलवायेगा,
मन की हो या फिर हो तन की, हर गहराई वह बतलायेगा,
चाहे कोई भी राज़ छुपाना हो, उससे छुप कभी ना पायेगा,
जो कभी किसी से ना बांटा, वह दुख दर्पण से बांटा है मैंने,
अपने चेहरे की हर लकीर को, उसमें ही पहचाना है मैंने,
सही किया या गलत किया, सदैव दर्पण से पूछा है मैंने,
उसमें देखकर प्रतिबिंब अपना, सही निर्णय लिया है मैंने,
जब जब झुकी पलकें मेरी, अपनी गलती को सुधारा मैंने,
उठाकर पलकें जब देखा, स्वयं में विश्वास पाया है मैंने,
ऐ दर्पण जानती हूं मैं, मुझसे ज़्यादा तूने मुझे पहचाना है,
इसीलिए मुझसे ही मुझको, कई बार तूने ही मिलवाया है।