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Meenakshi Chauragade

Abstract

4.4  

Meenakshi Chauragade

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मजदूर

मजदूर

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यह कैसा वक्त यह कैसा मंजर है

ठहर गया हर शहर है

मुश्किल हो गया है अब गुजारा

अब लौट जाऊंगा

मैं मजदूर हूं पैदल ही निकल जाऊंगा।


नन्हे कदमों के साथ

खाली हाथों में हाथ

वक्त से संघर्ष करता चला जाउंगा

मैं मजदूर हूं पैदल ही निकल जाऊंगा।


आग बरसा रहा है सूरज

तप रही है हर सड़क

गर्म हवाओं ने सुखा डाला

इस तपन में जल निकल जाऊंगा

मैं मजदूर हूं पैदल ही निकल जाऊंगा।


पैरों में छाले हैं

मुंह में नहीं निवाले हैं 

फिर भी चल पड़ा हूं मैं,

और चलता ही जाऊंगा

मैं मजदूर हूं पैदल ही निकल जाऊंगा।


लगा था न ऐ जिंदगी, 

तू ये भी दिन दिखाएगी

आशियाने से निकालकर

सड़क पर ले आएगी

तू ले इम्तिहान,

मैं हर इम्तिहान में तर जाऊंगा

मैं मजदूर हूं पैदल ही निकल जाऊंगा।


मुझे नहीं किसी से शिकवा ना किसी से शिकायत

रोटी के लिए भटका हूं मैं और भटकता जाऊंगा

मैं मजदूर हूं पैदल ही निकल जाऊंगा।


अलविदा ऐ शहर

अब ज्यादा ना रुक पाऊंगा,

तेरी रौनकों को आबाद करने

मैं लौट कर फिर आऊंगा,

मैं मजबूर हूं

मैं मजदूर हूं पैदल ही निकल जाऊंगा।


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