गंतव्य
गंतव्य


खचाखच भरी ९.५१ की लोकल
हर रोज की तरह आज भी
उतनी ही भीड़ है ब्रिज पर
पर जब उतरा प्लेटफार्म पर
और चलने लगा अपने डिब्बे की तरफ
तो लगा आज फर्स्ट क्लास में चढ़ने की
लाइन कुछ ज्यादा ही बड़ी है।
कानों में कुछ लोगों के शब्द पड़े
आज कहीं पर ट्रैक टूट गया है
फिर प्यारी-सी एक आवाज आई
जिसको रोज-रोज हर रोज
सुनने की आदत हो गई है
कि आज ट्रेन्स तीस मिनट देरी से चल रही हैं।
असुविधा के लिए खेद है
मैंने एक लंबी साँस ली
फिर सोचा जाने दो यह तो
रोज की बात हो गई है।
चाहे कोई-सी भी हो सरकार
कुछ भी कहना है बेकार
और मैं खड़ा हो गया पंक्ति में
जिसमें गाड़ी आने पर व्यक्ति के बाद
व्यक्ति फटाफट चढ़ते हैं।
और सब बार-बार कभी
कलाई पर बंधी घड़ी
और कभी-कभी हथेली में विराजमान
मोबाइल पर एक-एक सेकंड देख रहे थे।
यह सपनों का शहर जहाँ एक-एक सपना
एक-एक सेकण्ड से जुड़ा है
जहाँ एक-एक ट्रेन का समय
एक-एक बस, एक-एक ऑटो के
समय से जुड़ा है।
जहाँ ऑफिस समय पर न पहुँचने पर
बॉस के ताने सुनने पड़ते हैं।
जहाँ एक पल की देरी से रिश्ते,
साँसें सब कुछ हमेशा के लिए छूट जाता है।
आखिरकार ट्रेन देरी से ही सही
पर आई तो सही
जान में जान आई
बॉस को इत्तल्ला दी आ रहा हूँ।
जितना शोर प्लेटफार्म पर था,
ट्रेन में सब के बैठ जाने के बाद
उतना ही सन्नाटा पसर गया।
कोई अख़बार में मौसम की
जानकारी पढ़ रहा
गर्मी बहुत है
जून आ गया पर बारिश नदारद है।
कोई पढ़ रहा राजनीति की ख़बरें
नई सरकार ने कुछ नया देने का
सिर्फ वायदा किया है
या कुछ नया मिलेगा भी
कुछ मोबाइल पर गेम्स खेल रहे
कुछ मंजीरे बजा-बजा कर
प्रभु को याद कर रहे।
विट्ठल विट्ठल विट्ठला, हरी ओम विट्ठला
बराबर में ही महिलाओं का डिब्बा था।
फिर भी कुछ महिलाएं
पुरुषों के डिब्बे में थी।
महिलाओं के डिब्बे से लगातार चिल्लाने,
झगड़ने की आवाज आ रही थी।
कोई ससुराल से परेशान
कोई मायके से
कोई बच्चों से
कोई पति से
कोई बॉयफ्रेंड से
एक-दूसरे से कर रही थी
बातें जोर-जोर से।
कभी आती कपड़े बेचने वाली
कभी चॉकलेट
कभी आती मेकअप का सामान बेचने वाली
और खरीद रही थी महिलाएं
लागातार कुछ-न-कुछ
खुश थी वो महिलाएं जिनका
फटाफट सामान बिक रहा था।
इतने में चढ़ गई एक पुलिस
और सन्नाटा पसर गया
सब हो गए अवाक्
पकड़ कर ले गई उन मुस्कुराती
सामान बेचने वाली महिलाओं व बच्चों को।
पर नहीं पकड़ा उस अंधे दंपत्ति को
जो वास्तव में अंधे नहीं थे।
बस आँखें बंद कर मांग रहे थे
चंद पैसे खुदा के नाम पर
और जिनको हर एक व्यक्ति ने
दिए थे कुछ-न-कुछ रूपए।
अख़बार की एक ख़बर पर नज़र पड़ी
कितने मासूमों ने कर ली आत्महत्या
नहीं आ पाए ९९ प्रतिशत
उफ़्फ़ !
मन उदास हो गया
और फिर मेरा ‘गंतव्य’ आ गया।