कलम काँप उठी
कलम काँप उठी
कलम काँप उठती है जब दिल्ली की सर्दी में किसी को ठिठुरता देखती हूँ।
न चैन से सो पाती हूँ न आराम से कुछ लिख पाती हूँ।
कलम काँप उठती है जब पढ़ती हूँ दहेज़ की खबर अखबार में।
न चाय पी पाती हूँ न आराम से कुछ लिख पाती हूँ।
कलम काँप उठती है जब देखती हूँ विदाई किसी लाडली की।
न मन लगता है कहीं किसी काम में, न आराम से कुछ लिख पाती हूँ।
कलम काँप उठती है जब देखती हूँ अनखिली कली को मुरझाते हुए।
न मन करता है जीने का, न आराम से कुछ लिख पाती हूँ।
कलम आखिर उस दिन टूट ही जाती है, जब लिखना चाहती हूँ अपहरण या बलात्कार पर।
कलम भी शर्मसार हो जाती है, जब कोई महिला तार तार हो दम तोड़ देती है।
आँखें भी पत्थर हो जाती हैं, कान भी सुन्न हो जाते हैं।
जब वहशी को फ़क़त टीवी पर देख लेती हूँ।
सच कहूँ तो कलम काँप उठती है जब लिखना चाहती हूँ किसी लाड़ली के बारे में।