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चिन्तन

चिन्तन

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बिजली के हिलते तारों पर

बीच नगर के

कोलाहल और धूल कणों से

सटी सड़क पर  झूला झूले

एक कबूतर

ध्यानमग्न है किसी ऋषि सा।


चिन्तनशील किसी चिंता में  

आँखें मूंदे चुप बैठा है

बीच बीच में खोल आँख

कुछ देख रहा है

आने वाले कल की बातें

या फिर गुजरे कल की बातें।


देख परेवी उसको चिंतित

उतरी आसमान से नीचे

आई पंख समेटे पीछे

बैठी पास पिया के सट कर

बड़े प्यार से

चोंच टिका गर्दन सहलाई।


मन को मारे

 यूं चुप धारे क्यों बैठे हो

आओ चल कर नीड़ बनायें

इक सुंदर संसार सजायें

जिसमें हम हों

नन्हे बच्चे

कलरव हो खुशियों का ऐसा।


उठो उठो तंद्रा को छोड़ो

तिनका कोई ढूंढे मिल कर

चलें सजाने सपनों का घर  

सुन सजनी की

प्यारभरी प्यारी

आँखें खोल देख प्रिया को

हँसा व्यंग्य से।


देख रही हो दूर दूर तक

कोई वृक्ष दिखाई देता ?

आम, नीम कचनार कहाँ है

पीपल बरगद की तो छोड़ो ?

बेर, करीर कहीं तो दिखे

फल की कोई बात नहीं है।


कोई खिड़की कहीं झरोखा ?

कोई रोशनदान नहीं है

कोई आंगन द्वार नहीं

आग उगलते डब्बे जैसे

घर यूं जैसे भट्टी कोई

कैसे कोई बने घोंसला ?

कहाँ कोई घर बार सजाओगी तुम ?


कल ही देखा

उस ललमुनिया ने जो जोड़ा

एक घरोंदा सूखी लकड़ी पर

जिसे सफेदा कहते हैं सब

फल और फूल न थे जिस पर  

 दो टहने पर रचा घोंसला

एक हवा के

हल्के झोंके से बिखरा था ?


सुनती गुनती रही कपोती

बोली, हम तो खुशकिस्मत हैं

बचपन में ही सही

देख तो लिए

लीची दाड़िम आम लदे तरु

हर इक घर में।


सुना सकेंगे इनकी बातें

निज शिशुओं को

सोचो कैसे लोग सिर्फ तस्वीरों में ही

दिखा करेंगे मनबह्लावा

और यहाँ क्या लिए

छिपाए बैठे हो तुम

पंजों में यों।


ओ हो ! बीज कोई हो लाये

आओ ! इसको हम बो आयें

 कोई बिरवा ही पनपेगा

कहीं कोई हरियाली दिखे

 उड़े युगल तबचले ढूँढने कच्ची माटी

जिसमें रोंपें नया बीज यह

अगले बरस।


जो विकसित हो कर

सपनों को साकार बनाये।


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