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Sneh Goswami

Abstract

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Sneh Goswami

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नदी

नदी

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मैं नदी 

तुम्हारे नाम का उच्चार पाते ही

लपक ली थी

बीहड़ों को पार करती

जंगलो को फलाँगती

इस अहसास के तले


घने नेह की छाँव

बढ़ कर थाम लेगी हाथ मेरा

तुम्हारे देह की तपन

बनेगी लहर का उल्लास

तुम्हारे सांस की उतरन चढन

तुम्हारे वक्ष पर सर रख भूलूंगी 

जन्म जन्म की हर थकन


अनंत प्रेम की गहराइयाँ

उबार लेंगी ताप और संताप से

चली आ रही थी मैं

लगभग दौड़ती समाने को

तुम्हारी विशाल बाहों में

यहाँ तुम मेरे आने से बेखबर

मग्न थे अपनी विशालता के सम्मोहन के


अनेक छोटे बड़े नद नाले घेरे थे

तुम्हे अपने जल तरंगों में

और तुम उनके होने न होने से परे

अपनी ही लहरों में मचल रहे थे

उन लहरों को ही तुम्हारा मौन निमन्त्रण मान

किया था पूर्ण समर्पण


सोचा था

अपने भीतर की तमाम

मिठास, चपलता और उमंग भर कर

तुम्हारे उस कथित अस्तित्व का साथ बन जाऊँगी

पर अपना अस्तित्व गवां खारीपन ही हिस्से आया

खारी खारी पानी है सब ओर

यहाँ तक मैं भी खारी

मिठास ! ये मिठास क्या होती है ?  


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