बूंद और पपीहा
बूंद और पपीहा
पंद्रहवें नक्षत्र की किरणें जब, नभ मंडल में छायी थी,
काली घनघोर घटा से, एक बूंद निकलकर आयी थी।
'पी-कहाँ, पी-कहाँ' सुनकर, अचम्भित हो वो रुक गई,
देख हाल पपीहे का ऐसा, विस्मित हो वो ठिठक गई।।१।।
समझाने का ले संकल्प, वो झट पपीहे के पास गई,
समझ जायेगा समझाने से, ऐसी मन में ले आस गई।
प्यासा रहता उस धरा पर, जहाँ असंख्य नदियाँ बहती हैं,
बूंद स्वाति की पपीहे को, समझा - समझाकर कहती है।।२।।
अरे ! पागल, दीवाने ! हठ कैसी, अब तक तूने ठानी है,
आँख उठाकर देख जरा, चहु ओर पानी ही पानी है।
प्यासा व्यर्थ में तू मरता है, ये बात तुझे समझानी है,
पानी - पानी में भेद करे, पानी आखिर पानी है।।३।।
छोड़ दे अब हठ नहीं तो, तू मर जायेगा,
खाली हाथ आया है, खाली हाथ जायेगा।
अमृत की बूंद कहाँ, हिस्से सबके आती है,
बूंद स्वाति की पपीहे को, ऐसे समझाती है।।४।।
कल मरता हूँ तो आज मुझे मर जाने दे,
मगर मुझे न इस तरह से और तू ताने दे।
पपीहा बोला बूंद से, प्यासा ही मर जाऊंगा,
पर प्यास अपनी मैं, तेरे जल से ही बुझाऊंगा।।५।।
हे निर्मोहिनी ! तू क्या जाने प्रेम और प्रेम निभाना,
तेरा काम है बरसना और बरसकर निकल जाना।
युगों - युगों से मैं, बस तेरा ही इन्तजार करता हूँ,
तू जब-जब बरसती है, मैं तेरा ही पान करता हूँ।।६।।
अरे ! ढीठ, गँवार ! प्रेम में तू मतवाला हो गया है,
प्यास के मारे तू अस्थिर चित्तवाला हो गया है।
मेरी बात तुझ मूढ़ को, समझ क्यों नहीं आती है,
बूंद स्वाति की डपटकर, पपीहे को धमकाती है।।७।।
निर्बुद्धि ! मेरा क्या है ? मेरी राह तो लाखों तकते हैं,
अनंत जन्मों से, दिनरात मेरा ही नाम जपा करते हैं।
मगर कहाँ ? मैं हाथ किसी के, कभी लग पाती हूँ,
क्षीरसागर से निकलकर नीलसागर में मिल जाती हूँ।।८।।
हे मनमोहिनी ! चिंता व्यर्थ मेरी तू क्यों करती है,
सच-सच क्यों नहीं कहती, कि तू प्रेम से डरती है।
पपीहा बोला बूंद से, मैं प्रेम पथ पर सब हार गया,
पार गया वो डूब गया, जो डूब गया सो पार गया।।९।।
बड़ी-बड़ी बातें कहकर, मुझको तू समझाती है,
पर इतनी सी बात, तेरी समझ में नहीं आती है।
तेरे प्रेम का प्यासा हूँ मैं, तेरे लिए ही जीता हूँ,
प्यास मेरी तब बुझती है, जब तुझको मैं पीता हूँ।।१०।।
देख प्रेम पपीहे का, हृदय बूंद का द्रवित हुआ,
प्रेम की महिमा जानकर, उसका मन हर्षित हुआ।
पपीहे के प्रणय निवेदन ने, उसका हृदय छुआ,
प्रेयसी का हृदय भी, अपने प्रेमी पर मोहित हुआ।।११।।
नदी जैसे अथाह सागर में, जाकर मिल जाती है,
बूंद स्वाति की ठीक वैसे ही, पपीहे में समाती है।
पपीहा अपनी बात से, प्रेम का मर्म समझा गया,
भक्तिमार्गी को राह मिलन की, 'काफ़िर' दिखला गया।