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Sneh Goswami

Abstract

5.0  

Sneh Goswami

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प्रेम

प्रेम

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मैं नदी

तुम्हारे नाम का उच्चार पाते ही

लपक ली थी

बीहड़ों को पार करती

जंगलों को फलांगती।


इस इक अहसास के तले

घने नेह की छाँव बढ़ कर

थाम लेगी हाथ मेरा

बनेगी लहर का उल्लास

तुम्हारे देह की तपन।


तुम्हारी साँस की उतरन चढ़न

तुम्हारे वृक्ष पर सिर रख भूलूंगी

जन्म जन्म की थकन

अनंत प्रेम की गहराइयाँ

उबार लेंगी ताप से संताप से। 


चली आ रही थी

लगभग दौड़ती मैं

समाने को

तुम्हारी विशाल बाँहों में।


यहाँ तुम

मेरे आने से बेखबर

थे मग्न अपनी

विशालता के सम्मोहन में।


अनेक छोटे बड़े नद

 घेरे थे

तुम्हें अपनी तरंगों में

और तुम

उनके होने न होने से परे

अपनी ही लहरों में मग्न लिपटे पड़े थे।


अपने अहं से

प्रेम से भीगी मैं

उन्हीं लहरों को तुम्हारा

मौन निमन्त्रण मान

किया था पूर्ण समर्पण।


सोचा था

अपने निज की मधुरता,

चपलता और उमंग से

हर लूंगी विराग, उदासी

जिसमें तुम कसे हो।


 तुम्हारे अस्तित्व में घुल जाऊँगी

खांड और मिसरी की तरह

शरबत निरा शरबत

पर पूरा घुल कर देखा

खारी खारी है सब खारी

मैं पूरी की पूरी खारी

खारीपन ही हिस्से आया।


नदी कहीं खो गई 

नदी कहीं है ही नहीं अब

हर ओर सागर ही सागर है

निरा खारा खारा सागर। 


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