इत्र की शीशी
इत्र की शीशी
जमा कूड़े में फेंकी एक,
खाली इत्र की शीशी देख,
क्यारी में खिली जुही इतराई,
मारा ताना उससे बतियाई,
बोली सुन ओ इत्र की शीशी !
पड़ी हुई है कैसे ऐसी ?
गंधों वाली गली में तेरा नाम बड़ा था,
एक समय था जबके तेरा दाम बड़ा था,
कृत्रिम ख़ुशबू पे भी तो ग़ुमान बड़ा था,
नाक चढ़ी रहती थी ख़ुद पे मान बड़ा था।
हुआ आज क्या खाली हो गई ?
चीज़ फ़ेंकने वाली हो गई !
बागों से तो निकल चली थी,
बाज़ारों में पहुँच सजी थी।
क़ीमत हरे-गुलाबी थे पर,
कीर्ती आज तेरी काली हो गयी।
तू बिकाऊ है तू बनावटी,
ख़ुशबुएँ तेरी रही मिलावटी,
तुझसे ही बदनाम हो कलियाँ,
संगत में बर्बाद हैं सखियाँ।
तू समाज का अभिशाप है,
तुझपे बाग़ को पश्चाताप है।
मुझे देख मैं पाक़ी फुलती,
रोज़ ओस संग ताज़ी खिलती।
बागों की शोभा मैं बढ़ाती,
प्राकृतिक सुरभि फैलाती।
मैं कुलीन हूँ बाग़ की नाज़,
मैं प्रकृति औ’ प्रेम की ताज़।
मैं तो शुद्ध हूँ मैं ही दैविक,
मैं अनमोल हूँ मैं ही सात्विक।
मैं सौन्दर्य हूँ मैं श्रृंगार,
पुरस्कार मैं, मैं उपहार।
मैं अभिनन्दन मैं ही अलविदा,
देखो तो मेरी शान है जुदा।
इतना सुन कर इत्र की शीशी ने मुंह खोला,
सदियों ताने सुनती आई, आज जा बोला,
सुन ओ जुही की डली इतराई !
तू तो अब भी बाज़ न आई
गली के कोने में ख़ुशबू बाज़ार जवाँ है,
तभी बाग़ की कलियों की महफ़ूज़ समा है।
मैं बदनाम न होऊँ तो तेरा नाम क्या होगा ?
मैं न इतर उड़ाऊँ सोंच हर शाम क्या होगा।
रोज़ हवस के हाथ चढ़ी तोड़ी जाती तू,
किसी काम के क़ाबिल न छोड़ी जाती तू।
मैं पिस चली कि क़िस्मत तेरी फूट न जाए,
मैं बिक गई कि अस्मत तेरी लुट न जाए।
मैं खाली हो चली कि तू ही भरी रहे,
मैं काली हो गई कि तू ही हरी रहे।
इसीलिए जुही नादाँ तू मान न कर,
अपने से अनभीज्ञ का यूँ अपमान न कर।
तुझे ज्ञान नहीं कि किसकी क्या है कहानी,
तू तो ख़ुद की नियति से अभी है अनजानी।
तू न समझ एक तेरा ही अस्तित्व खरा है,
इस समाज में मेरा भी महत्व बड़ा है।
इस विधान का मैं भी एक अभीन्न अंग हूँ,
मुझे समझ मैं गंध ही का एक भिन्न ढंग हूँ।
मुझे बूझ संतुलित समाज की एक सेविका,
गंध वाली मिट्टी बिन बने न बुत देवी का।
बाग़ से अलग हुई पर मिट्टी का हिस्सा हूँ,
त्याग, दर्द, मजबूरी का अनसुना किस्सा हूँ।
कितनों की ख़ुशबू की प्यास बुझाती हूँ मैं,
बे-बाग़ हुए को गुल की आस जगाती हूँ मैं।
गर्द लिबास से लिपट गिला बिन जाती हूँ मैं,
इसतेमाल हो कूड़े में फेंकी जाती हूँ मैं।
ख़ुदी मिटा कर दूजों को अपनाती हूँ मैं,
फिर भी किसी के ध्यान कभी नहीं आती हूँ मैं।