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अभिषेक कुमार 'अभि'

Abstract

5.0  

अभिषेक कुमार 'अभि'

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समझौता

समझौता

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लगता है शाम हो रही है

हाँ ! अब शाम होने लगी है।

डूबते रिश्तों की धूप में

गरमाहट साफ घटने लगी है।


और अपनेपन की ताप में

हिचकिचाहट सुलगने लगी है

नीच इरादों के ढींट इमारतें

रोशनी छेंक मगरूर हो रहे हैं।


कुछ किरणें रोक ये अधघने

शान-वृक्ष भी गुमाँ संजो रहे है।

वो मटमैला क्षितिज लुप्त होने को है

ये गुलाबी आसमाँ सलेटी हो जाए बस।


वो पूर्वा बयार भी रूकने ही को है

ये उदास गोधुली जो उठ जाए बस।

तो ऐसा करें कि,

ग़म की रात की तैयारी कर लें जरा

हम भी शाम से यारी कर लें जरा।


माँझल जोश के धागों से ऊँचे खिले

हौसलों के रंगबिरंगे पतंग लपेट ले अब

मन आँगन में पसारे सिमसिम अरमान

उम्मीद की अरगन्नी से उतार सरिया लें अब।


सुबह की खुली ख़ुशखिड़कियाँ और

आस-दरवाजे बंद कर ले जरा

दिवाल अगोड़ी चिढ़ाती बत्तियाँ बार

नकली उजाले से अंधेरा तोप ले जरा।


दूर उड़ चले उन रूठे परिंदो को भी

कितना मनाया-लुभाया जाए अब

दिल-जिगर आ बसे मेहमानों को

रुक्सत की इजाजत दे ही दी जाए अब !


वर्ना रास्तों के सड़कें भी

देखो जाम होने लगी हैं।

लगता है शाम होने लगी है

हाँ अब शाम हो रही है।


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