दास्तां ए ग़म- ग़ज़ल
दास्तां ए ग़म- ग़ज़ल
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एक टीस उठी है सीने में
फ़िर सुकूँ हो कैसे जीने में
सैलाब भरा है आँखों में और
दहशत दिल के सक़ीने में
जब दर्द से बद्तर नशा नहीं
परहेज़ ही क्या फ़िर पीने में
तुम न घर पे, रौशनी कहाँ
दर दरीचे कोठे जीने में
तेरे मरहम ए मुस्काँ बिन क्या
है चाक जिगर के सीने में
मुझे है ख़बर तुम्हें क्या पता
दफ़न हैं क्या क्या सीने में
किस्से कई सुने ‘अभि’ ने इक
दास्ताँ ए ग़म ये करीने में