तितली बचेगी?
तितली बचेगी?
मेरी भोली तितलियां !
ओ मेरी सोन तितली !
न जा तू बाग जोखिम ले,
नाज़ुक पंख लिए अकेले।
गिरगिट घात लगा बैठे हैं;
अपना रंग बदल फिरते हैं,
झाड़ी-बिल छुपे घूरते हैं।
लार जीभ से टपकाते;
लपलपा के हबक लेंगे,
ग्रास झपक-सुरक लेंगे।
बिगड़ैल असभ्य दरिंदे ये;
जबडों में चाभ-चबा लेंगे,
दांतों से चीर-दबा देंगे।
ये घिनौने शिकारी हैं भूखे;
पैने पंजों से बखोटेंगे,
दबोच नोच खसोटेंगे।
ये आग उगलते ड्रैगन हैं;
रोवाँ रोवाँ झुलसा देंगे,
ये रूह रूह सिहरा देंगे।
कुछ आवारा कुछ राज-पले,
कुछ गिरगिट तो घर के निकले;
जिनके पोषण में ही है दोष,
तो अब हम किसे रहे हैं कोस?
जब तुम मेरी जान मिलोगी,
बेसुध और निष्प्राण मिलोगी;
या, कोने दुबकी बैठ डरोगी,
अस्मत लुटती सोच मरोगी।
जो पराग परों के झड़ जाएं,
अरमान-मान रंग उड़ जाएं,
हम देख तुम्हें बस रो पाएँ,
उस घड़ी न कुछ भी हो पाए।
इक कैंडल मार्च निकलता है,
ट्विटर पर पोष्ट चिपकता हैं;
दिन चार शोर मचाते हैं,
धरने पे गुहार लगाते हैं।
सरकार आश्वासन देती है,
पर कुछ भी काम न आता है;
आबरू का परत उधड़ जाता,
कानून ओ तंत्र शर्माता है।
तब तक कुछ बदल न पाएगा,
के जब तक हम न जागेंगे;
जो बदला हमने रुख़ अपना,
इनको हम सबक सिखाएंगे।
इन गिरगिटों के पूँछ पकड़,
चौराहे पे लटकाना होगा;
जबड़ों को नथ कर सूली से,
पंजों को छटकाना होगा।
ये दर्द वही एहसास करें,
हम अंग भंग जो कर डालें;
बदला तितली तेरा पूरा हो,
जब लहू लुहान जला डालें।
ये देख के हश्र, दरिंदों के,
रूह काँप उठे जुर्रत न करे;
गर पंख झड़े जो परिंदों के,
तो ख़ैर नहीं; अहेरी डरे!!