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अभिषेक कुमार 'अभि'

Tragedy

5.0  

अभिषेक कुमार 'अभि'

Tragedy

तितली बचेगी?

तितली बचेगी?

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मेरी भोली तितलियां !

ओ मेरी सोन तितली !

न जा तू बाग जोखिम ले,

नाज़ुक पंख लिए अकेले।


गिरगिट घात लगा बैठे हैं;

अपना रंग बदल फिरते हैं,

झाड़ी-बिल छुपे घूरते हैं।


लार जीभ से टपकाते;

लपलपा के हबक लेंगे,

ग्रास झपक-सुरक लेंगे।


बिगड़ैल असभ्य दरिंदे ये;

जबडों में चाभ-चबा लेंगे,

दांतों से चीर-दबा देंगे।


ये घिनौने शिकारी हैं भूखे;

पैने पंजों से बखोटेंगे,

दबोच नोच खसोटेंगे।


ये आग उगलते ड्रैगन हैं;

रोवाँ रोवाँ झुलसा देंगे,

ये रूह रूह सिहरा देंगे।


कुछ आवारा कुछ राज-पले,

कुछ गिरगिट तो घर के निकले;

जिनके पोषण में ही है दोष,

तो अब हम किसे रहे हैं कोस?


जब तुम मेरी जान मिलोगी,

बेसुध और निष्प्राण मिलोगी;

या, कोने दुबकी बैठ डरोगी,

अस्मत लुटती सोच मरोगी।


जो पराग परों के झड़ जाएं,

अरमान-मान रंग उड़ जाएं,

हम देख तुम्हें बस रो पाएँ,

उस घड़ी न कुछ भी हो पाए।


इक कैंडल मार्च निकलता है,

ट्विटर पर पोष्ट चिपकता हैं;

दिन चार शोर मचाते हैं,

धरने पे गुहार लगाते हैं।


सरकार आश्वासन देती है,

पर कुछ भी काम न आता है;

आबरू का परत उधड़ जाता,

कानून ओ तंत्र शर्माता है।


तब तक कुछ बदल न पाएगा,

के जब तक हम न जागेंगे;

जो बदला हमने रुख़ अपना,

इनको हम सबक सिखाएंगे।


इन गिरगिटों के पूँछ पकड़,

चौराहे पे लटकाना होगा;

जबड़ों को नथ कर सूली से,

पंजों को छटकाना होगा।


ये दर्द वही एहसास करें,

हम अंग भंग जो कर डालें;

बदला तितली तेरा पूरा हो,

जब लहू लुहान जला डालें।


ये देख के हश्र, दरिंदों के,

रूह काँप उठे जुर्रत न करे;

गर पंख झड़े जो परिंदों के,

तो ख़ैर नहीं; अहेरी डरे!!



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