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Rashi Saxena

Abstract

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Rashi Saxena

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बेबस गगन

बेबस गगन

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सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र और तारे, 

विचर रहे थे गगन में सारे। 

पंछी भी चहक रहे थे अब तक, 

गगन में होते खूब नजारे। 


बरखा की जब बूँदें गिरती, 

धरती पर खुश हो जाते सारे। 

लेकिन अब बेबस गगन हुआ है,

सर्द रात में ठिठुर रहा है, 

बर्फ की चादर तान कर वह भी, 

गहन नींद में हुआ मगन है। 


कभी शीत तो कभी उष्ण,

धरती से उसकी लगी लगन है। 

बेबस गगन पुकार रहा है,

खुद से ही खुद हार रहा है। 


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