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Rashi Saxena

Inspirational

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Rashi Saxena

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माँ का कर्ज

माँ का कर्ज

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 मैंने पूँछा उससे

  "माँ तुम्हारी क्या करती है?                

  बोला"कुछ नहीं ,घर पर ही रहती है।"

   

कितनी सहजता से बोल गये तुम

  कुछ नही करती",घर पर ही रहती है।

  क्या सोचा कभी,?

  तुम आज जो हो, न होते , 

  गर वह न होती

              

 नौ महीने गर्भ मे पाला तुझे

 शोणित से अपने सींच कर

 अनगिनत साँसें देकर

 दिया नवजीवन तुझे।

              

 बीमार जब कभी होता

  काट देती रात पलकों में

  सुला तुझे सूखे में

  खुद सोती थी गीले में।


  वो सपने,उमंगें वो ख्वाहिशें

  लाई थी संग बाँध ओली में

  भेंट कर दिये कर्म कुंड में, कुछ

  कैद कर दिए चारदीवारी में

  उतार कर मुखौटा नव वधू का

  बन गई ग

ृहिणी इक रात मे                         

                                 

चकरघिन्नी की तरह घूमती 

पूरी करती फरमाइशें सब की

"मेरी चाय, मेरा टिफिन,मेरी दवा"

और भूल जाती दवा खुद की।


वो अरमान वो ख्वाहिशें 

 लाई थी साथ जिनको

 रह गए आधे अधूरे

 पूरे करने तुम्हारे सपनो को।


 कर सको तो करना

 मूल्यांकन, माँ के उन कार्यों का

 उन साँसों का उन लम्हों का

 खून के उन बेशुमार क़तरों का

               

 हो सके तो तुम देना उतार माँ का कर्ज

 जो कुछ किया उसने मान अपना फर्ज            

 फिर न कहना कभी माँ कुछ नहीं करती

 माँ न होती तो जिंदगी यों न सँवरती।


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