मन व्याकुल है माँ
मन व्याकुल है माँ
बहुत अधीर व्याकुल है मन मेरी माँ,
नित अश्रुधार आँखों से बहाऊं माँ।
चहूँ ओर घोर निराशा के बादल छाए,
बता किस विध तुझे मैं मनाऊं माँ।।
कदम कदम पे असंख्य काँटे चुभते,
मन आहत और संताप भरा है माँ।
दुखों की जंजीर सब पग उलझी है,
हृदय सभी का संशय से भरा है माँ।।
सुख दुःख के इस मायाजाल में उलझे,
आज भूल गए हैं सब मुस्काना है माँ।
ऊंचे नीचे अनघड़ अनर्गल विचार जन्मते,
सब ओर भयंकर मंडराया भंवर जाल है माँ।।
बीच भंवर मैं हरपल नाव हिचकोले लेती,
कभी डूबती तो कभी उछलती है माँ,
टूटी सी पतवार निज हाथ में पकड़ी,
उस टेक हाथ से न ये उभरती है माँ।।
नित्य पुण्य पाप के जाल में फंसता,
खोता जाता हूँ खुद की सुध बुध है माँ।
भीतर बैठी आत्मा नित देती उलाहना,
फूट फूट खुद से ही होता है युद्ध है माँ।।
गुण गाने से भी अवरुद्ध हुई है वाणी,
धर्म अधर्म का न मुझको ज्ञान है माँ।
अब तो इतनी कृपा करो घटघट वासिनी,
मुझको तेरे भीतर बैठी का हो भान हे माँ।।
कुछ ऐसी गुण शक्ति मुझ भीतर भर दे,
तेरा यश गाउँ तुझे मनाऊं हर पल हे माँ।
मुझको वो रीत-गीत विध सिखा दे माँ,
जिस विध तुझे देखूँ दर्शन तेरा पाऊँ हे माँ।।