पहचानों घर बसे जयचंदों को
पहचानों घर बसे जयचंदों को
कोई युद्ध नहीं जो हम हारे हैं यारो,
बस खेल के मैदान में कुछ रन कम पड़े हैं।
पर अपने घर के इन जयचंदों को कौन समझाए,
जो खुद अपनी पीठ पर खंजर घोपनें पर अड़े हैं।
जो खड़े सरहदों पे हरपल प्रहरी बन कर,
क्यों उनके मान को ठेस तुम पहुंचाते हो।
अपने घर भीतर छिपे जयचंदों से लड़ने को,
क्यों विवश कर सरहद से ध्यान हटवाते हो।।
हम इस पावन वीर धरा के वीर सपूत हैं,
जो खेती सींचे खुद के लहू को खून बनाकर।
क्यों भुलाते हो त्याग अपने अमर शहीदों का,
अदनी सी पड़ोसी जीत को परचून बनाकर।।
जरूरत है पहचान कर इनको चिन्हित करना,
काट देनी होगी गर्दन इन सब छुपे गद्दारो की।
जो सहिष्णुता को हमारी कमजोरी समझ रहे,
कह दो एक स्वर में नही जरूरत तुम मक्कारों की।।
जिस थाली में खाते उसमें ही तुम छेद हो करते,
इस से बढ़ कर और भला क्या निर्लज्जता होगी।
नही किसी ने बांध शांकल तुम्हे है रोके रखा यहाँ,
तुम जाओ वहाँ जहाँ नित नियम स्वागत में बर्बरता होगी।।
ऐ मेरे देश के स्वाभिमानी सुधीजनों सुनो जरा,
अब वक्त है पहचान करने का घर बसे जयचंदों की,
देखो घर आँगन में ही जो उपद्रवी बन नृत्य करते,
अब जगो और खोल दो गाँठ इनके सब काले धंधों की।।