ये दौड़ कौन सी
ये दौड़ कौन सी
सुबह से शाम तक धन धन करता भागे,
फिर भी देखो इन्सान भूखा मर रहा है।
भाई भाई से लड़ता बेटा बाप से नाराज,
रिश्तों को नीलाम सरे बाजार कर रहा है।।
सब रिश्तों के अर्थ आज बेमानी से लगते हैं,
भाई बहन के मन में भी गहरी खाई बनी है।
माँ पिता दोनो बेबस और लाचार दिखाई देते हैं,
रस्सी रिश्तों की खंड खंड जी की दुहाई बनी है।।
दादी नानी की कहानियां गुजरे वक्त की बात हुई,
एकाकी जीवन निश्छल प्रेम दुहाई देता फिरता है।
लुहलुहान जख्मी हृदय सभीके भीतर दिखाई देते,
देख रिश्तों की दरारे खुद ही भीतर रोता दिखता है।।
मार कर संवेदनाएं सारी पत्थर होता जाता है,
बन कर मुर्दा साँस वाला नित विचरता रहता है।
आलीशान बना कर मकबरे पत्थर देखो यारो,
पाने को अपनापन अकेला सिहरता रहता है।।
कभी घर छोटे और जिगर बड़े हुआ करते थे,
आज तंग गलियां और जिगर का रहा नाम नही।
चौबीसों घण्टे बस व्यस्तता का व्यर्थ राग अलापे,
मतलब का किसी के पास आज रहा काम नही।।
न जाने कौन सी ये दौड़ बन अंधे दौड़े जाते हैं,
भूल कर अपने बड़े बुजुर्ग गैरों को गले लगाते हैं।
हररोज निन्यानवें के सौ बनाने के पीछे भाग रहे,
दो वक्त की रोटी भी न प्रेम भाव से खा पाते हैं।।