Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Divya Pal

Tragedy

5  

Divya Pal

Tragedy

पिछड़ी सोच

पिछड़ी सोच

2 mins
9


सुनो, 


कुछ कहना था तुमसे जो शायद तुम समझ न पाओ

अक्सर सुनती हूं पराई हूं मैं पराए घर से आई हूं।


तो क्या तुम अपनाके मुझे कभी अपना बना पाओगे

 क्या तुम अपने घर में मेरा अपना घर दे पाओगे ।


जिम्मेदारियां ही मिली है जब से दहलीज तुम्हारे आई हूं

चौका,बरतन ,खाना, कपड़े सब अपना के भी मैं पराई हूं ।


तुम्हारे घर के हर रिश्ते को सर आंखों पे सजाया है

तुम्हारी मां के तानों को भी मां का प्यार बताया है।


क्या तुमने कभी मेरे घर को भी उतना अपनाया है

दामाद होकर कभी तुमने एक दामाद का फर्ज निभाया है ।


खुद की आजादी को तुम्हारी चौखट पे बाध भीतर आई हूं

एक दिन तुम उसे खोल सौप दो हमे , यहीं आशा लाई हूं।


कभी होली तो कभी दिवाली कभी सावन के बहाने

हर त्यौहार पीहर से आता है 

आज भी जो कपड़े पहनती हूं वो भाई ही दिलाता है ।


समझ नही आता जब उम्र भर के लिए तुमसे नाता जोड़ लिया

फिर भी मेरे मरने के बाद कफन भी भाई ही क्यों लाता है।


गर मैं कुछ बन जाऊंगी बाहर जाकर चार पैसे कमाऊगी 

कमा कर पीहर न भिजवाकर तुम्हारी घर गृहस्थी में लगाऊगी


फिर भी न जानें क्यों शादी के बाद भी पढ़ाई के लिए 

फीस भी मेरे पिता से ही भरने की उम्मीद लगाते हो ।


ये अनजान सी या जानकर भी पिछड़ी सोच की दीवार 

आखिर कब तक बनाओगे ,,,,,,,

ढहा के ये दीवार जरा देखो इस पार मैं तुम्हारी अपनी हूं पराई नहीं।।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Tragedy