हद में रहो
हद में रहो
यौवन की देहरी,
लांघने के बाद
सुनाई देते हैं,
स्वर वर्जनाओं के
कभी न कभी, हर स्त्री को
सिमटते दायरों में ,
सिकुड़ जाता है
उमंगों का विस्तार
बरज देते,
जब उच्छृंखल हंसी को
फुसफुसाती हैं वर्जनाएं -
जरा धीरे हंसो
एक नारी हो तुम ;
हद में रहो
आहत होता है
उसका स्वाभिमान
कितनी ही बार ;
कामुक वचनों से
कामुक आंखों से
पर वह करती नहीं प्रतिकार
रोक देती है
कोई अज्ञात शक्ति उसको
लड़ने से बारम्बार
फुसफुसाती हैं वर्जनाएं -
चुप रहो
कुछ मत कहो
उछालो ना, ऐसी बात
न होगा कुछ, तुम्हें हासिल
महज बदनामी, लगेगी हाथ
छटपटाकर
घायल अभिमान, के दंशनों से
बहलाती वह, खुद को
मर्यादा के खोखले, आश्वासनों से
झुठला दिए जाते हैं
दुर्गा और काली के चरित्र
जब अकारण ही-
फुसफुसाती हैं वर्जनाएं
यह ना करो, वह ना करो
एक नारी हो तुम ;
हद में रहो।