सिसकती हुई पुस्तकें
सिसकती हुई पुस्तकें


पड़ी रहती हूँ घरों में एक सजावट की वस्तु बनकर,
कोई पल भर को देखता भी नहीं मुझे नज़र उठाकर।
धूल मिट्टी से सनी हुई, आहत सा होता हुआ मन,
कोई नहीं देखता मेरी ओर, होता इस बात का ग़म।
क्यूँ तोड़ रहे लोग मुझसे रिश्ता, मेरी क्या है गलती,
पड़ी रहती हूँ कोने में अलग थलग, रहती हूँ सिसकती।
मेरा अंग अंग रोता रहता है, आँखों से आँसू बहते हैं,
कहीं कहीं मकड़ी के जाले, बेतहाशा लटकते रहते हैं।
जी हाँ ठीक समझा आपने, मैं वही हूँ, आपकी पुस्तक,
कितना चाहते थे आप मुझे, होती थी दिल में दस्तक।
पर आजकल आप जाने क्यूँ, रहते हो मुझसे रुठे हुए,
मेरी खबर भी नहीं लेते हैं, कितने कितने दिन हुए।
पहले जब आप मुझे निहारते थे, पन्ना पन्ना पलटते थे,
रिश्ता बन गया था आपसे, आप मुझे बहुत ही चाहते थे।
क्यूँ नहीं संभालते हो आजकल, हो गई मैं बहुत अकेली,
क्या हो गया आजकल आपको, मैं तो थी आपकी सहेली।
ng>पहले मेरे अंदर छिपाते थे, स्नेहसिक्त गुलाब की पंखुड़ी, बड़ा अच्छा लगता था मुझे, जब बनती थी प्रीत की धुरी। मुआ मोबाइल क्या आ गया, आप तो मुझे भूल ही गए, फेसबुक, व्हाट्सप्प की धुन में, अहसास आपके धुल गए। मेरी तो कोई गलती न थी, फिर क्यूँ इतनी बड़ी सजा, मुझे ऐसे बिसार कर, क्या मिलता होगा आपको मजा? हर बात के लिए गूगल खोल, उलटा सीधा लिखते हो, गीता, रामायण, पुराण, महाभारत, कुछ नहीं पढ़ते हो। करती हूँ आपसे एक ही अनुरोध, मेरी लाज रख लो, व्यस्त जीवन से वक़्त निकाल, थोड़ा मुझे भी चख लो। बचा लो अपना साहित्य, बचा लो संस्कृति की अस्मिता, ले लो हाथ में कलम आप, बहा दो लेखन की सरिता। कहते हैं पुस्तक दिवस है आज, पर बातें हुई गोल मोल, भाव भी तो शिरकत नहीं करते, खोए साहित्य ने बोल। कलम, स्याही और दवात, तीनों को दें दिल में स्थान, लेखन पठन का करें अभ्यास, लौटा दें फिर मेरी पहचान।