अख़बार
अख़बार
आज वर्षों बाद तुम्हें पढ़ा है मैंने,
एक वक़्त था जब प्यार करती थी तुमसे,
अकूत, अपार, बेइंतहा
पर अब भ्रम टूटता सा जा रहा है,
तुमपर भरोसा खोता चला जा रहा है।
लूटमार, अपहरण, तुष्टिकरण, चोरी, बलात्कार,
बस इन्हीं खबरों से बनता है आजकल अख़बार।
बचपन में पिताजी कहते थे मुझे,
“बेटी अख़बार पढ़ो, दिन दुनिया की ख़बरें मिलेंगी”
बचपन में पढ़ने लगी थी तुम्हें,
तुम जीवन के अंग बन चुके थे,
सुबह होते ही अख़बार का इंतज़ार होने लगता था।
राष्ट्र का चौथा स्तम्भ……
तीन खम्भों की खामियों को उजागर करता हुआ,
राष्ट्र का एक सच्चा प्रहरी।
पर शायद तुम अब बुढ़े हो चले हो,
ख़ुद कमजोर हो चले हो,
तीन खम्भों का दायित्व निभाने में अशक्त,
रोज वही ख़बरें
चटपटी मसालेदार
सिगरेट, तम्बाकू के भड़कीले विज्ञापन
बलात्कार, लूटमार आदि से रूबरू कराता हुआ
रोज एक नई तारीख के साथ।
क्या यही है चौथे स्तम्भ का प्रारब्ध?
वही अख़बार, वही खबर नई तारीख के साथ,
कुछ भी तो नहीं लगता समाज के हाथ,
सिवाय वैमनष्य, देशद्रोह की भावना, तोड़ फोड़ के,
क्या देते हो तुम आजकल?
पहले तुम रोजमर्रा का हिस्सा हुआ करते थे,
आज वर्षों बाद तुम्हें पढ़ा है मैंने,
वरना मैंने तो तुम्हें मंगाना ही बंद कर दिया था,
कई साल हो गए हैं,
आजकल किसी के हाथ में अख़बार देखती हूँ
तो जाने क्यूँ चिढ़ सी होती है?
जाने कब, क्यूँ, कैसे इस चौथे स्तम्भ की
गरिमा खो गई?
चौथे स्तम्भ के तथाकथित पहरे के बावजूद
हर तरफ राष्ट्र द्रोही खड़े हैं
हाथों में खंजर और पत्थर
रीढ़ की हड्डी को तोड़ने के लिए
हर गलत बात का समर्थन
हर सही बात का विरोध
यह बन गई आज की परंपरा।
कभी सत्ता पर तुम्हारी आवाज़ काबिज़ होती थी,
अब कई दशकों से तुम्हारी आवाज़ पर सत्ता काबिज़ हो रही।
जाने क्यूँ अब तुम ने सच्चाई का दामन छोड़
झूठ का परचम हाथों में थाम लिया है?
तुमने जाने क्यूँ आजकल खो दी अपनी गरिमा?
कहीं कहीं तुम्हारी चुप्पी कचोटने लगती है,
लगता है तुम भूल चुके हो कि तुम अख़बार हो।
बलात्कार करने वालों की, अपहरण करने वालों की
ख़बरें मुख्यपृष्ठ पर छपती है और
किसी देशभक्त की ख़बरें कहीं किसी
छोटे से कोने में।
विज्ञापनों की होड़ लगी हुई है।
पत्रकारिता के नाम पर एक घिनौना मज़ाक
कही कोई क्रूर षड़यंत्र….
राष्ट्र का चौथा स्तम्भ आज लड़खड़ा रहा है,
इन कमजोर घुटनों के सहारे
तुम कितने दिन चलोगे झूठ का सहारा बनकर?
क्यूँ तुम्हारे पन्नों की इबारतें झूठ बोलने लगी?
तुम्हारे लफ़्ज़ों में क्यूँ नफरत की बू आने लगी है?
क्या कही कोई घोर षड़यंत्र है जिसके चलते
विघटन कर्ताओं में तुम्हें
कुछ भी गलत नजर नहीं आता?
राष्ट्र को तोड़ने की बातें होती हैं,
देशद्रोहियों को सम्मानित किया जाता है
और राष्ट्रप्रेमियों को मिलती है शूली
पर अख़बार, तुम निःशब्द हो जाते हो।
आखिर क्यों?
कोरोना काल में अख़बार मंगाना बंद कर दिया
तो बड़ा सुकून है यह सोच कर कि चलो
अब सुबह सुबह अनचाहे
झूठ से रूबरू नहीं होना पड़ता
और न अगली सुबह का इंतज़ार करना पड़ता है
एक नये झूठ के पुलिंदे की प्रतीक्षा में…..।
चाहती हूँ हर सुबह गले से लगा लूँ,
चाहती हूँ हर सुबह तुम्हें पढ़ लूँ,
काश तुम थोड़ा ख़ुद को बदल सकते,
काश तुम में सच्चा साथी मिल जाता
काश……..