कुछ अधूरा सा
कुछ अधूरा सा
बड़ा खामोश लम्हा है इन चुप्पियों के दौरान भी
स्मृतियों का कौंधना भी इस चुप में विघ्न नहीं डाल पाता
मैं सैकड़ो मीलों दूर किसी नीम ख़ामोशी में सुन रही हूं खुद को पुकारे जाने की आवाज़
और मैं इत्मीनान से हर कश के साथ फूँक रही हूं ज़िंदगी
मेरे चारों और दौड़ रहीं हैं खुशहाल , दिलकश ज़िंदगियां
लोग दौड़ रहे हैं दोनों हाथों में सफलताओं के तमगे थामे
किन्ही सुखद यात्राओं की ओर...
और मैं देखती हूं मेरे आगे एक चक्रव्यूह ..एक घेरा...
निराशाओं, त्रासदियों, असफलताओं और नीरवता का
एक टीला है ..ऊंचे अट्टहासों का ...
जो प्राचीन सभ्यताओं में पाए मोहनजोदड़ो से भी ऊंचा प्रतीत होता है मुझे
जिसमें मुर्दो की जगह दफ़न हैं मेरे तमाम शौक, स्वप्न , बचपन, किलकारियां, खिलखिलाहट कुछ कर गुजरने का जज़्बा और भी बहुत की कुछ
उसके सबसे निचली सतह पर है प्रेम ...
लहूलुहान ह्रदय ....जीवटता..
मैं देखती हूँ और हँस पड़ती हूँ ...
इतना हंसती हूँ कि रो पड़ती हूँ ...
और फिर याद करती हूँ अपनी आखिरी हँसी
जनवरी की कोई दोपहर... कुछ हल्की गुनगुनी धूप ,भुनी मूंगफलियां की सौंधी महक और माँ एकसाथ ज़ेहन से गुजरते हैं .....
कश की अजीब कड़वाहट किसी कसैलेपन में बदलकर जुबां का ज़ायका खराब कर देती है
मैं एकाएक सिगरेट को मसल कर फेंक देती हूँ
दुःस्वप्न मुझे घेरने लगते हैं
मैं चीखने से पहले झटक देती हूँ तमाम प्रश्नचिन्ह
किसी खुले आसमान की ओर दौड़ती हूँ
पर सब कफ़स लगता है ....
बंद कमरे मुझे खुले आसमान से ज्यादा महफूज़ लगते हैं अब
रंगों में डूबी कूची से कमरे की सफेद दीवारों पर उकेरती हूँ आज़ाद परिंदों के चित्र
पर असफल रहती हूँ
गौरैया की जगह हर बार उकर जाता है गिद्ध का चित्र जिसकी आंखे मेरे वक्ष की ओर होती हैं
मैं डर से कांपते हाथों से मिटाने लगती हूँ रंग
पर रंग का गहरापन सोख लेता है मुझे... जैसे निगलने लगता है मुझे
मेरी हथेलियां, हाथ, उंगलियां सब स्याह होने लगते हैं ...
मैं खुदको किसी गिद्ध में बदलते देखती हूँ
पर सिरे से खारिज कर देती हूँ स्वयं का गिद्ध होना।