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Punit Singh

Abstract Tragedy

2.5  

Punit Singh

Abstract Tragedy

पुरुष की वेदना

पुरुष की वेदना

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जन्मा मैं लिंगमय, अर्धनारीश्वर का अर्ध हूं,

अर्धांगिनी संग लेता दायित्व, जीवंत रूप में कर्म हूं मैं,

ना मैं दर्द हूं, ना मैं मर्म हूं,

परिवार का एक स्तम्भ हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


ना थकता कभी, ना रुकता कभी,

जीविका चलाने को अत्यंत परिश्रम करता हूं मैं,

हथेलियों में चट्टान मैं, आलिंगन में मोम हूं,

परिवार का रक्षक हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


कहानियां अनंत हैं, अनगिनत हैं किस्से,

जहां नायक बना चरित्र हूं मैं,

आज सुनो कुछ किस्से मेरे मुख से,

जिसमे बस एक दर्शक हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


वह पुत्र जो करता है मेरा नाम उज्ज्वल,

उस पुत्र का महान आदर्श हूं मैं,

जिसने किया हमेशा अपेक्षा से अधिक,

उस पुत्र कर्मठ का पिता हूं मैं।


जब हुआ वो एक पल को दृष्टि से ओझल, 

पता चला हुआ है अपहरण उसका,

आस में सुरक्षित पाने की उसे, दे आया संसार की पूंजी मैं,

सुरक्षा की कामना किए एक दर्शक हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


आ ही जाता वो मेरे समीप एकदम सुरक्षित,

पर जो देख लिया था उसने मुख उनका,

वापस आया केवल शरीर पार्थिव उसका,

उस मृत पुत्र के सम्मुख मरणासन्न बैठा हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


आओ बताऊं तुम्हे क्या हुआ हश्र था मेरी प्रिय पुत्री का,

रक्षक था मैं, नायक था मैं, अपनी जिस पुत्री का,

कुछ भेड़ियों ने गड़ाए थे अपने खूनी दांत जब उसकी जंघा में,

उसकी सुरक्षा का हर जतन किए एक दर्शक हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


कैसे बचा पता मैं उसे उन पंजों से, जो कहते थे की वो मेरे अपने हैं,

कैसे पता चलता भला उन भेड़ियों का, अब तो ये सब एक भयावह सपने हैं,

नोच लिया है जनहोने उस मासूम के पूरे तन को,

नेत्रों से बह रही अश्कों की धारा लिए एक दर्शक हूँ मैं, पुरुष हूँ मैं।


इससे भी भयार्थ कृत्य किया उन दानवों ने मेरी अनुजा के साथ,

रखे था अपनी कुदृष्टि उसपर वह एक काल से, और कर दिया तार तार उसके पाक दामन को,

लौटना था उसे घर अपने विद्यालय के बाद, पर उसपर लगा बैठा वो राक्षश अपने हाथ,

वो योद्धा है, उसने संभाला खुद को और चल पड़ी वो अपने घर को।


पर अभी उसकी वेदना का अंत न था, पथ पर उसके दुर्योधन एक और खड़ा था,

भला उस बेचारी को क्या पता था उसकी मंशा का, पुनः वो उसके मन पर टूट पड़ा था,

उसका सहायता मांग लेना ही भंग कर गया उसकी बची हुई प्रतिष्ठा को,

अब उसे जीने का हौसला देता एक दर्शक हूँ मैं, पुरुष हूँ मैं।


कैसे जताऊं संताप अपने बूढ़े माँ बाप को खोने का,

मदभेद के कारण आन पड़ी अपने परिवार पर विपदा का,

कि एक उंगल की मेढ़ के लिए, घुस घर में सुला गए उन्हें पडोसी वो,

अब रक्तरंजित भूमि पर बैठा एक दर्शक हूँ मैं, पुरुष हूँ मैं।


एक और पावन संबंध होता है, मित्रता का,

यह पवित्र रिश्ता भी दुःख दे जाता है कदा,

तनिक सा मनभेद मित्रों का, भेद गया वक्ष मेरे भाई का,

अब उसके जीवन संघर्ष को देखता एक दर्शक हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


बहुत किस्से है ऐसे जिसमे मानव नर बना खलनायक है,

पर कुछ किस्से यूं भी हैं जिसमे कुचला है मुझे शक्ति नें,

जहां मनुष्य मादा ने ढाए है कष्ट मुझपर, ऐसे भी कुछ उदाहरण हैं,

अपना कुचला अभिमान देखता एक दर्शक हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


उस क्रूर ने चाहा जलाना मेरी प्रियतमा का मुख,

हुई आपत्ति मेरी, तो मुझपे भी छोड़ दिए अपने कर कमल उसने,

हाथ क्या पकड़ा मैंने उसका, हो गया उसपर संसार का दुःख,

थी तो वो शक्ति का ही स्वरूप, ना क्षमा करी मेरी यह उद्दंडता उसने,


विवाह में दिया था वचन मैंने, कि प्रेयसी को ना छुएगा कोई दुःख,

उसके अनुयायिओं ने भी कहां छोड़ा एक भी वार का मौका,

मेरी अर्ध भय में देखती रह गई मेरा लुहू लुहान मुख,

अब अपना टूटा हुआ वचन लिए एक दर्शक हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


किस्से अभी भी बहुत से हैं बताने बाकी,

पर एक गाथा और सुना देता हूं मैं,

बताना अपराध क्या किया मैंने, मेरे साथी,

क्यूंकि मूक एक दर्शक हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


आधीन हूं मैं उस शक्ति का जिस शक्ति ने है जाना मुझे,

उस शक्ति ने भी जीते जी है मृत्यु सा ठगा मुझे,

मान पदोन्नति में रोड़ा, लगा आरोप मुझ पर व्यभिचार का,

खुद को साध्य करने का यतन करता एक दर्शक हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


धिक्कारता हूं मैं ऐसे लोगों को, जिन्होंने है जीवन को छला सदा,

पर धिक्कारने से कुछ होना नहीं, यह भी संसार का है नियम भला,

कुछ लोहा उनमें डाल दूं, कुछ खुद में, यही विचार आता है मुझे कदा,

मन में कष्टों को बंधी किए, जीवन की एक उमंग हूं मैं, पुरुष हूं मैं।


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