ककहरा
ककहरा
माँ की छाँव से निकल नया कुछ सीखने,
दुनिया की दौड में समाहित हो जीने
बालक जब पाठशाला जाता है।
वहाँ जीवन का बहुमूल्य
सबक ककहरा सीखता है।
मुझे याद है मैंने भी सीखा था
अ से अनार, आ से आम
क से कबूतर, ग से गाय,
ब से बकरी, ह से हाथी
और इस तरह हमने शब्दों की भाषा जानी।
तभी तो जीवन की आगे बढी़ कहानी
एक दिन जब बच्चों को अन्त्याक्षरी खेलते सुना,
उनके चुने शब्दों को कैसे उन्होंने चुना।
सोचकर मेरा मन शंकित हो उठा,
मन में प्रश्न जैसे बिजली की तरह कौंध पड़ा।
बच्चे अ से अनार, आ से आम नहीं
अपितु अ से अपहरण, आ से आतंकवाद
ब से बलात्कार, घ से घोटाला, ह से हवाला
शब्दों को खेल - खेल में दोहरा रहे थे,
नेताओं के शब्दों को अपना रहे थे।
आजांदी के बाद का यह नया ककहरा है,
लोकतंत्र का बिगड़ा हुआ ये चेहरा है।
कोई कहो इन माननीय नेताओ से ,
देश और अभिमान से पूरित पुरोधाओ से,
भाषा और व्याकरण का प्रयोग सीखें।
ककहरा को ककहरा ही रहने दें,
उसके दुष्प्रयोग से नई व्याकरण न लिखें।