बसन्त में मन की पाती
बसन्त में मन की पाती
मद मस्त पवन मंथर- मंथर
चलता है धीरे ठहर -ठहर
सूरज भी तपिश बढाता है
एक नया सन्देश दे जाता है
न रहता कभी समय इक सा
जो आज है वो नहीं कल सा
ऋतुएँ आती हैं जाती हैं
नव जीवन राग सुनाती हैं
लो बसन्त की हल्की छाँव तले
फागुन भी अब मदमाता है
रंगों की फैली है आभा
तन-मन को ये सरसाता है
ये मौसम बदला बाहर का
मन का भी बदला जाता है
नव उमंग नव निर्मित सी
कुछ कल्पनायें दे जाता है
श्रृंगार भाव मन मैं पनपा
पिय के संग मन इठलाता है
चलती जाऊँ मैं न रुकूँ कहीं
मन पंख लगा उड़ जाता है
बसन्ती रस से भीगा मन
फहगुनिये मैं हुलसाता है
मेरी भी बात सुनो ऐ पवन
पाती अपने संग ले जाओ
देना उस जीवन प्राण प्रिये को
जिसके संग मेरा हृदय चला जाता है।