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Mayank Kumar 'Singh'

Abstract

5.0  

Mayank Kumar 'Singh'

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ए कमरा बोल ना

ए कमरा बोल ना

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ए कमरा बोल मैं क्या करूं

आज मरु या फिर कल मरु

एक मकड़ी ने दिल में जाल फैलाया

उसमें फंसऊ, गलु या फिर निकलूं

ए कमरा बोल मैं क्या करुं।


पर तुम कैसे बोलोगे

तुम नहीं बोलोगे

क्योंकि मकड़ी के जाल तुमने

खुद अपनी छत पर लगवाएं

ए कमरा बोल मैं क्या करूं।


जब-जब किसी ने जाल उजारा

तब-तब तुमने उसका घर बसाया

कुछ पहर सबसे छिपाकर उसे बचाया

भले खुद को तुमने बदसूरत दिखाया

ए कमरा बोल मैं क्या करूं।


पर, कमरा बोल ऐसा हर बार क्यों होता है

बसाने वाला ही जिम्मेवार क्यों होता है

तुमने तो उसे घर-बार दिया

दीवार उसे ख़ूब शानदार दी

जाल बुनने को खलिहान दिया।


उसके बाद भी तुम्हें ख़ूब थपेड़े पड़े

तब भी तुम उसके लिए ख़ूब लड़े

पर वह बड़ी खुदगर्ज निकली

थपेड़े देख वहां से भाग निकली

ए कमरा बोल मैं क्या करूं।


पर सच बोलूं तो कमरा

मेरा भी कुछ ऐसा ही हाल है

अंदर से मुझे सड़ा-गला देने वाली मकड़ी,

उसका भी तुम्हारी मकड़ी-सा हाल हैं !

ए कमरा बोल मैं क्या करूं !


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