प्रेम
प्रेम


एकटक
झुकी
मुस्काती
आँखों में
झांकते हुए
किसी पुराने
आम के पेड़ के नीचे
या रेलवे स्टेशन के किसी कोने ----मंदिर--मेले में।
इस
लोक लुभावनी
बाजारू दुनिया
की कल्पनायें
मुझे
कोरी झूठी
लगने लगती।
उस समय
कुछ भी
याद नहीं रहता
विश्वविद्यालय--क्लास शहर की भीड़--धुंध-- धुंआ --घुटन---।
थम सी जाती है
जिंदगी
और
समय का चक्र
हौले हौले मुस्काता
कहीं
खोया
खंघालता
इतिहास के प्रेममयी
पन्ने।
नहीं सुनाई देते शाश्वत शब्द,
पतले
फड़कते होंठ,
गुलाबी,
पसीने से
चुहचुहाया चेहरा
जाने अनजाने
कह जाता
हजारों शब्द,
हजारों बातें,
अपनी ही भाषा में,
जिसे नहीं समझ पाएंगे
हृदय हीन,
बुद्धिजीवी ,
आलोचक।