Ghazal No.24 चल ही नहीं पाता ज़माने की रफ़्तार के सा
Ghazal No.24 चल ही नहीं पाता ज़माने की रफ़्तार के सा


मेरे हाथों में जब रहता है तेरा हाथ
ये गुमाँ रहता है कि सबसे जुदा हूँ मैं
तेरी महफ़िल में किसने उठाई है आवाज़ मेरे हक़ में
कभी तो ग़ौर कर कि यहाँ खुद अपनी सदा हूँ मैं
आईने पर ऐतबार करूँ कि उसकी आँखों में अपने तसव्वुर का
ना जाने कब से बस इसी कश्मकश में पड़ा हूँ मैं
लुत्फ़ जो है सफर में वो हासिल-ए-मंज़िल में कहाँ
हर बार पहुँच के मंज़िल के करीब वापिस मुड़ा हूँ मैं
चल ही नहीं पाता ज़माने की रफ़्तार के साथ
ना जाने कितनी किताबों के बोझ तले दबा हूँ मैं
माना इस काम में हैं रुस्वाइयाँ बेइंतेहा फिर भी
झूठ के बाजार में सच खरीदने पर अड़ा हूँ मैं
बस एक मुबस्सिर नज़र चाहिए मुझे खोजने के लिए
अपने आप में ही कहीं ख़ज़ाने सा गड़ा हूँ मैं
उतरा नहीं फिर कभी ज़मीँ-ए-सुकूँ पर
जब से अपनी अना की दीवार पर चढ़ा हूँ मैं
अपने दिल पर तेरे ग़मों के इख़्तियार के लिए
खुद अपनी ही खुशियों से लड़ा हूँ मैं
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होश में तो कब ज़मीँ पर भी ठीक से चला हूँ मैं
बेखुदी में तेरी मगर आसमानों के पार उड़ा हूँ मैं
वो उस मकाँ-ए-इश्क़ का मकीं कभी हुआ ही नहीं
जिसके दर पर अपनी वफ़ा लिए मुद्दतों से खड़ा हूँ मैं
करता रहा जब ख़िदमत उम्रभर ख़्वाहिश-ए-जिस्म की
फिर अब किस हक़ से कहूँ अपनी रूह से जुड़ा हूँ मैं
अदब-ए-इश्क़ में तेरे हर गुनाह माफ़ करता रहा हूँ मैं
अब तो ये लगता है इंसान नहीं खुदा हूँ मैं
शायद कभी कोई सल्तनत मिली नहीं मुझे
तभी ये गुमाँ है कि तमाम ऐबों से जुदा हूँ मैं
बेहतर तो ये था कि एक बार में हो जाता चूर चूर आईने की तरह
यहाँ तो दरिया में पड़े पत्थर की तरह कतरा कतरा टूटा हूँ मैं
यकीं था दुनिया को मुझ पर जब तक करता रहा फरेब
थामा जब सदाकत का हाथ उसे लगा कि इंतेहा का झूठा हूँ मैं
ऐ ज़िन्दगी मिला है कब मुझे लुत्फ़ एहसास-ए-आज़ादी का
यहाँ कब तेरी कफ़स-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ से छूटा हूँ मैं