Ghazal No. 40 इलाज़ अपने ऐबों को तो बस ये किया हमने हर रोज़ अपने घर के आईने
Ghazal No. 40 इलाज़ अपने ऐबों को तो बस ये किया हमने हर रोज़ अपने घर के आईने
रिश्तों के समन्दर में वफ़ा का मोती ढूंढता रहा मैं
ज़मीन-ए-आफ़ताब में छाँव का एक कोना ढूंढता रहा मैं
हक़ीक़त से अपनी यूँ मुंह मोड़ता रहा मैं
आईना जब भी देखा आँख मूँदता रहा मैं
रहनुमाओं से मुल्क में इंकलाब की उम्मीद करता रहा मैं
गीली लकड़ियों से आग जलाने की कोशिश करता रहा मैं
अपनी ख्वाहिश की खातिर अपने को बदलते रहे लोग
अपनी हस्ती के मुताबिक अपने ख़्वाबों को बदलता रहा मैं
यहाँ लम्हों में आदमी को खुदा बनते देखा हमने
ताउम्र आदमी से इंसान बनने की कोशिश करता रहा मैं
छोड़कर वतन अपना दौलत तो जहाँ भर की कमाई लेकिन
उस पुरानी गुल्लक के सिक्कों की खनक को सुनने को तरसता रहा मैं
इलाज अपने ऐबों को तो बस ये किया हमने
हर रोज़ अपने घर के आईने बदलता रहा मैं
शमशीर-ए-नाकामी ने कर दिए ना जाने कितनों के सर कलम
अपनी नाकामियों की धार से खुद को तराशता रहा मैं
पल भर में ही उतार के फेंक दिया तूने जो शॉल इश्क़ का
मुद्दतों उसे वफ़ा-ओ-जुनूँ की सीलियों से बुनता रहा मैं
शफे जो मख़्सूस थे दास्ताँ-ए-इश्क़ के लिए मेरी किताब-ए-हयात में
उन पर भी जमाने की रुसवाइयों के किस्से लिखता रहा मैं
देखा ना जब तक औरों की मजबूरियाँ को करीब से
दुनिया में हासिल अपनी कामयाबी पे गुरूर करता रहा मैं
अगर-मगर लेकिन-वेकिन बस इन्हीं अल्फ़ाज़ों से
अपनी हर एक दास्ताँ का आगाज़ करता रहा मैं
लूटेरों से घर को महफूज़ रखने के लिए रात में जलाए थे जो चराग़
रात भर हवाओं से उनकी ही हिफाज़त करने को जागता रहा मैं
उसने तो कबकी उन आँखों में बसा ली थी सूरत किसी और की
मुद्दतों महफ़िलों में जिन आँखों के क़सीदे पढ़ता रहा मैं
ताकि कायम रहे दुनिया में वफ़ा पर एतबार 'प्रकाश'
बाद-ए-मंज़िल भी रास्तों का साथ निभाने के लिए चलता रहा मैं।