Ghazal No. 43 पर्दाफाश हुआ जब पीर-ओ-वली की अच्छाइय
Ghazal No. 43 पर्दाफाश हुआ जब पीर-ओ-वली की अच्छाइय
महफ़ूज़ रखा था जिस आशियाने को ख़िज़ाँ की आँधियों से
जल के खाक़ हो गया वो ही मौसम-ए-बहारा की बिजलियों से
मुल्क में ख्वाहिश है जिनकी वतन को एक रंग में रंगने की
गुलशन में उन्हीं का दिल बहलता है रंग-बिरँगी तितलियों से
छिनेगा तब तक नहीं तख़्त-ओ-ताज़ जालिमों-ओ-शैतानों से
दबता रहेगा जब तक ज़िक्र-ए-हक़ मज़लूमों की मजबूरियों से
अलग ही मेयार था उसकी नज़रों में इश्क़ की ऊँचाइयों का
कर रहा था वो अपनी वफ़ा की पैमाइश मेरे ज़ख्मों की गहराइयों से
पर्दाफाश हुआ जब पीर-ओ-वली की अच्छाइयों का
इश्क़ हो गया हमें अपनी तमाम बुराइयों से
सैलाब से उभरकर जो नावें डूब गईं साहिल पर
तकमील-ए-सफर संग-ए-ख़ुदी मुंसलिक हो गया था उन कश्तियों से
ऐ खुदा की तो कोशिश तमाम तेरे आस्ताँ पर आने की मगर
मस्जिद का रास्ता गुज़रता था होके मयखाने की गलियों से
क्या सिला मिला मुझे बरसों की सदारत-ए-ग़म-ए-महफ़िल का
एक दावत-ए-महफ़िल भी कभी ना मिली हमें अपनी खुशियों से
रोग़न की जगह अपना लहू भरा जिनमें
जले तो फ़क़त धुआँ निकला उन दियों से
हर एक की ज़ुबाँ पर बस तेरा ही नाम था
गुफ़्तगू जो की मैंने अपनी नाकामियों से
जिस्म की ज़रूरतों से फुर्सत कहाँ किसी को 'प्रकाश'
कौन रखे वास्ता यहाँ अपनी रूह की सिसकियों से।