STORYMIRROR

ANIRUDH PRAKASH

Abstract

4  

ANIRUDH PRAKASH

Abstract

अक़्सर

अक़्सर

1 min
214

जिस्म के ही साथ होती है अक़्सर

इश्क़ की ये ही ज़ात होती है अक़्सर

ज़ेहन को तो तुम याद नहीं

दिल से तुम्हारी बात होती है अक़्सर

जबसे छोड़ा है हमने तेरी गली का रास्ता 

मेरी ज़िन्दगी से मुलाक़ात होती है अक़्सर 

जो खेला है बाज़ी-ए-इश्क़ उसूलों से 

उसकी ही इसमें मात होती है अक़्सर

दिन गुज़रता है कशमकश-ए-तर्क़-ए-मयकशी में 

मय-कदे में रात होती है अक़्सर

पराई लगती भी नहीं अपनी होती भी नहीं 

ज़िन्दगी की यही मुश्किलात होती है अक़्सर

बिखर जाता है टकरा के तेरे संग-ए-तग़ाफ़ुल से 

शीशा-ए-दिल के साथ ये वारदात होती है अक़्सर

सर-ए-बज़्म तो कभी गुफ़्तगू नहीं होती है उनसे

हाँ मगर निगाहों से इशारात होती है अक़्सर

सहरा-ए-दिल में खिलते हैं तेरी यादों के फूल 

यहां मेरी आँखों से बरसात होती है अक़्सर

जब भी जाता हूँ दुल्हन-ए-मसर्रत लाने के लिए 

साथ मेरे ग़मों की बारात होती है अक़्सर

दिल में जवाँ होती हैं जो तमन्नाएँ लहू पी के 

लबों तक आते आते उनकी वफ़ात होती है अक़्सर

निभाया ही नहीं जिसने कभी रिवायत-ओ-आदाब-ए-इश्क़ को 

एतबार-ओ-वफ़ा उसकी बज़्म की मौज़ूआ'त होती है अक़्सर

ये यकीं कि ये मर्ज़ है ही नहीं 'प्रकाश'

रोग-ए-इश्क़ की यहीं से शुरुआत होती है अक़्सर


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract