अक़्सर
अक़्सर
जिस्म के ही साथ होती है अक़्सर
इश्क़ की ये ही ज़ात होती है अक़्सर
ज़ेहन को तो तुम याद नहीं
दिल से तुम्हारी बात होती है अक़्सर
जबसे छोड़ा है हमने तेरी गली का रास्ता
मेरी ज़िन्दगी से मुलाक़ात होती है अक़्सर
जो खेला है बाज़ी-ए-इश्क़ उसूलों से
उसकी ही इसमें मात होती है अक़्सर
दिन गुज़रता है कशमकश-ए-तर्क़-ए-मयकशी में
मय-कदे में रात होती है अक़्सर
पराई लगती भी नहीं अपनी होती भी नहीं
ज़िन्दगी की यही मुश्किलात होती है अक़्सर
बिखर जाता है टकरा के तेरे संग-ए-तग़ाफ़ुल से
शीशा-ए-दिल के साथ ये वारदात होती है अक़्सर
सर-ए-बज़्म तो कभी गुफ़्तगू नहीं होती है उनसे
हाँ मगर निगाहों से इशारात होती है अक़्सर
सहरा-ए-दिल में खिलते हैं तेरी यादों के फूल
यहां मेरी आँखों से बरसात होती है अक़्सर
जब भी जाता हूँ दुल्हन-ए-मसर्रत लाने के लिए
साथ मेरे ग़मों की बारात होती है अक़्सर
दिल में जवाँ होती हैं जो तमन्नाएँ लहू पी के
लबों तक आते आते उनकी वफ़ात होती है अक़्सर
निभाया ही नहीं जिसने कभी रिवायत-ओ-आदाब-ए-इश्क़ को
एतबार-ओ-वफ़ा उसकी बज़्म की मौज़ूआ'त होती है अक़्सर
ये यकीं कि ये मर्ज़ है ही नहीं 'प्रकाश'
रोग-ए-इश्क़ की यहीं से शुरुआत होती है अक़्सर
