Ghazal No. 44 लब-ए-तन्हाई की प्यास है कि बुझती नही
Ghazal No. 44 लब-ए-तन्हाई की प्यास है कि बुझती नही
तामीर-ए-तसव्वुर-ए-यार करूँ याँ हकीकत-ए-ज़िन्दगी का ऐतबार करूँ
अपने ख़्वाबों पर एतिमाद करूँ याँ ग़म-ए-दिल को सोगवार करूँ
यहाँ तो जिसको देखा ही नहीं उस पर मर मिटते हैं अहल-ए-दानिश
फिर मैं अहमक़ क्यूँ ना उस बुत-नशीं पर जां निसार करूं
ज़ी चाहता है कि परिंदा-ए-वक़्त के पर क़तर दूँ
ना शब-ए-वस्ल गुज़रे ना इसकी वापसी का इंतज़ार करूँ
लब-ए-तन्हाई की प्यास है कि बुझती नहीं
कहाँ तक मैं अपनी आँखों को आबशार करूँ
गिरे तो उस शबनम-ए-गुल का कोई कतरा मेरे दामन में
फिर क्या झील क्या दरिया मैं समँदर दरकिनार करूँ
बेबस हसरतों पर क्या इख़्तियार करूँ
असीर जो भागे ही नहीं उन्हें क्या गिरफ्तार करूँ
तेरी यादों को कब तक गम-गुसार कहूँ
तेरे इंतज़ार में ज़िन्दगी को कब तक शर्मसार करूँ
सहरा-ए-तन्हाई में कदम कदम पर हैं तेरी यादों के बिच्छू
कहाँ तक मैं अपने तग़ाफ़ुल-ए-ख़ंजर से इनका शिकार करूँ
ये सिसकती सिलवटें चादर की ये चरमराता पलँग तन्हाई का ये सिकुड़ती तकिया यादों की
अब कैसे मैं इनके दरमियाँ अपनी नींद का इज़हार करूँ
इज़हार-ए-ज़ज़्बा-ए-दिल को अल्फ़ाज़ नही हैं लुग़त में
कैसे फिर मैं अपनी नज़्म को शहकार करूँ
निचोड़ तो दूँ अपने सारे ख़्वाब मैं तेरी आँखों में मगर
हकीकत-ए-ज़िन्दगी के साथ फिर कैसे वक़्त गुज़ार करूँ।