Ghazal No. 39 इन सराब-परस्त निगाहों का नहीं इलाज़ क
Ghazal No. 39 इन सराब-परस्त निगाहों का नहीं इलाज़ क
बसेगा कैसे नजरों में कोई
दिल से निकल नहीं रहा है कोई
इन सराब-परस्त निगाहों का नहीं इलाज़ कोई
देख रहा हूँ आईना नज़र आ रहा है कोई
कहीं ज़ीस्त-ए-तौसीक़-ए-हसरत में जीते जी मर रहा है कोई
कहीं मरने के बाद भी लोगों के दरमियाँ जिये जा रहा है कोई
जुनूँ-ए-रक्स से कू-ए-यार में वो ग़ुबार उठाया हमने
मेरे सिवा अब उसको नज़र नहीं आ रहा है कोई
दिल-ए-तीरगी में तजल्ली-ए-तारी है
आज फिर याद आ रहा है कोई
राह-ए-मंज़िल के सब नशेब-ओ-फ़राज़ हमवार हो गए मेरे
आगे अपना पिशवाज़ ज़मीँ पर छुआता चल रहा है कोई
अपनी बुलंदी के आसमाँ से अकेले गिर रहा है कोई
अपने ज़ो'म-ए-दीवार के साये में तन्हा बिखर रहा है कोई
आज सैलाब को खुद को ज़ब्त करते देखा हमने
साहिल के उलट अपनी कश्ती उसी के दरमियाँ लिए जा रहा है कोई
ढूँढ ना लूँ उसे कहीं उसके नक़्श-ए-पा देखकर अपने
दुपट्टे को ज़मीँ पे इरादतन रगड़ाता चल रहा है कोई
खैंच रहे हैं जहाँ सब अपनी अदावत की पतंगों को
वहीँ अपनी मोहब्बत-ए-पतंग को ढील दिए जा रहा है कोई
अजब है 'प्रकाश' कि इस कैंचियों से भरे शहर में
अपना गरेबाँ साफ़ बचाए चला जा रहा है कोई।