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ANIRUDH PRAKASH

Abstract

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ANIRUDH PRAKASH

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Ghazal No. 40 ज़रूरतों ने इतने हिस्सों में बाँटा मुझे कि जब मुकम्मल हुईं स

Ghazal No. 40 ज़रूरतों ने इतने हिस्सों में बाँटा मुझे कि जब मुकम्मल हुईं स

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मेरी कहानी में तो किरदार हर किसी का था 

बस औरों की कहानियों में मैं कहीं ना था


दिल से चाहा नहीं बस तलाशा जगह जगह मुझे

मैं हर जगह था और मैं कहीं ना था


सवाल सारे मेरे बारे में थे मगर

उनके जवाबों में मैं कहीं ना था


ज़रूरतों ने इतने हिस्सों में बाँटा मुझे कि 

जब मुकम्मल हुईं सब तब मैं कहीं ना था


गिरा लिया जब खुद को अपनी नज़रों में 

फिर कामयाबी की दौड़ में गिरा मैं कहीं ना था


दुनिया से शनासाई का ये सिला मिला मुझे 

तमाम दुनिया थी मुझमें और मैं कहीं ना था


जो देता रहा दुहाई मुझे अपने इश्क़-ओ-वफ़ा की 

उसके ही दिल-ओ-नज़र में मैं कहीं ना था 


हज़ार गुनाह करके मैंने चढ़ा लिया सियासत का नक़ाब

अब गुनाहगारों की फ़ेहरिस्त में मैं कहीं ना था


कभी खुद घरों से बुलाकार दोस्तों को सजाता था यार-ए-महफ़िल

अब भी सजती हैं वो महफ़िलें पर उनमें अब मैं कहीं ना था


वो यादों का पंखा वो तन्हाई का पलंग वो आईना रुस्वाई का वो ख़ामोशी की चादर 

सब कुछ था घर में बस घर में मैं कहीं ना था


कबूल करता भी तो कैसे करता खुदा मेरी वस्ल-ए-दुआ 

मेरी तो हर एक दुआ में था वो पर उसकी दुआओं में मैं कहीं ना था।।


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