Ghazal No. 38 खेतों के बीच जो एक मेड़ हुआ करती थी कभी गुज़रते वक़्त के साथ व
Ghazal No. 38 खेतों के बीच जो एक मेड़ हुआ करती थी कभी गुज़रते वक़्त के साथ व
उसे इल्म नहीं है हमारे इंतज़ार के इंतहा की
एक वादा-ए-मौत पर हमने सारी ज़िंदगी गुज़ार दी
फ़िदा थी जो दुनिया झूठ के चमकते चेहरे पर
सहम गयी जब सच ने उसके रुख़ से नकाब उतार दी
ये सच की दौलत ये उसूलों की शोहरत ये जज़्बा वफ़ा का
जहाँ में इन्होंने आज तक किसकी ज़िन्दगी सवार दी
मेरी बर्बादी-ए-रोज़गार के बाबत जो दरख़्वास्त मिली मुझे
उसमें बस एक मेरी मोहब्बत ही उम्मीद-वार थी
अब वो ज़ज़्बा-ए-वतन-परस्ती कहाँ हममें जो थी हमारे शहीदों में
झूला समझ के झूल गए वो जिस पे औरों के लिए वो दार थी
डूबी जो कश्ती तो बस लगा दी तोहमत समंदर पर
किसको खबर की उसे गर्त करने में पतवार भी शुमार थी
कई आशियाने बिखरते देखे हमने तूफानों में मगर
यहाँ तो घर की दीवारों में खामोशियों से पड़ रही दरार थी
खेतों के बीच जो एक मेड़ हुआ करती थी कभी
गुज़रते वक़्त के साथ वो बन गयी एक दीवार थी
ये नए दौर की निस्बतों का शहर है 'प्रकाश'
यहाँ हर रिश्ते की गहराई की फ़क़त दौलत ही मेयार थी।
