Shashi Joshi

Abstract

2.3  

Shashi Joshi

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हां ! स्त्री हूं में !

हां ! स्त्री हूं में !

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हां ! स्त्री हूं मैं !

और !

स्त्री होना ही एक बड़ी

चुनौती है अपनेआप में !


चुनौती है समाज में खड़े रहने की !

चुनौती है भेड़ियों से बचे रहने की !

चुनौती है अपना चेहरा तलाशने की !

चुनौती है - अपनी उड़ान नापने की !


हां ! स्त्री हूं मैं !

इसीलिए,

सम्हालती हूं घर

चुराती हूं कुछ लम्हे

अपने लिए भी !


चुनती हूं चावल,

बुनती हूं सपने

हाथ चलते हैं बाहर और

भीतर चलती हूं मैं !


कभी गर्म तवे पर

सिकती रोटियों के बीच से 

कुछ वक्त चुरा लेती हूं !

कभी गुपचुप ख्वाहिशों की

बारिश में नहा लेती हूं !


टुकड़ा-टुकड़ा खुद को

काटती हूं !

खुद को ऑफिस और

घर के बीच बांटती हूं !


हां !स्त्री हूं मैं !

बचपन से बुढापे तक,

संघर्ष का सफ़र करती हूं !

हर रोज़ मुश्किलों के भंवर में,

डूबती हूं,

फ़िर उबरती हूं !


याद है मुझे वो दिन भी

जब भाई रौंदता था वक्त,

तेज़ी से भागती मोटर साइकिल

के पहियों तले

तब बचाती थी मैं तिनका

तिनका समय

अपनी नींदें काटकर !


मुंह अंधेरे चुपके से जागकर !

हां ! स्त्री हूं मैं !

इसीलिए मालूम है मुझे

कि मर्यादाओं की ,

हज़ारों-हज़ार नजरें

मेरा पीछा करती हैं !


सी. सी. टी.वी . की तरह

हर घड़ी, हर पल 

मुझ पर नज़र रखती हैं !


मगर स्त्री हूं मैं !

हर परीक्षा में खरी उतर जाऊंगी !

टुकड़ा - टुकड़ा बंटकर भी,

अपना वजूद सिद्ध कर जाऊंगी !


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