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ANIRUDH PRAKASH

Abstract

4  

ANIRUDH PRAKASH

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Ghazal No. 46

Ghazal No. 46

2 mins
430


हाथ उनका भी था इस दुनिया को सवाँरने में 

ज़िक्र जिनका नहीं था ज़माने के किसी फ़साने में


एक बार तुम्हें ज़िंदगी क्या कहा कि फिर 

ज़िंदगी गुजर गयी ज़िंदगी को मनाने में


यूँ तो उनसे मुलाकात थी बस चंद लम्हों की 

बरसों गुज़रे हमको उसकी तफ़्सील सुनाने में


वो तो दुनिया लड़ी मुझसे तुझको सामने रख कर 

वर्ना क़ुव्वत कहाँ थी हमसे टकराने की इस ज़माने में


वो दूर से पास आके मेरे करीब से गुज़र गया 

ऐसे भी सितम ढाये हैं उसने मेरे ज़ब्त को आजमाने में


फक़त उन्ही के घर रौशन रहे सारे जमाने में 

हाथ जिनके नहीं काँपे औरों के घर जलाने में


जो कहते थे छोड़ देंगे सारे ऐश-ओ-आराम मेरे लिए 

चंद लम्हों में ही घुटने लगा उनका दम मेरे गरीब-खाने में


एक बार उतरा था वो शहर के दरिया के पानी में 

तबसे बिकती नहीं मय यहाँ किसी भी शराब-खाने में


कौन करेगा तरदीद उनके अक़ीदत की 

जो बिन पिए भी रहे मख़मूर मय-खाने में


उसी की यादों के सहारे कटी ज़िंदगी अपनी 

वक़्त जिसे ना लगा हमें भूल जाने में


बदलते रहना तो आईन है क़ायनात की 

कोई कसर ना छोड़ी तूने मेरे साथ ये दस्तूर निभाने में


बहक गए जो कदम सुरूर-ए-क़ामयाबी में तो कोई बात नहीं 

मगर तौहीन-ए-मय होती है मयकशी के बाद लड़खड़ाने में


फ़क़त एक आईना ही था जो बिखर गया 

वर्ना किसको दिखा ज़ब्त-ए-दर्द मेरे मुस्कराने में


हो ना जाऊँ उठ के खड़ा कहीं मैं फिर अपनी खाक़ से 

रहा जमाना मुद्दतों मसरूफ़ मेरी राख़ को बिखराने में।


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