आलाप
आलाप
छोड़ देती हूँ अपने शब्दों को
रुप-प्रतिरूप से परे
बहुत ऊँघने के लिए
काग़ज़ के कोर पर, ऊँघते रहें
प्रांंगण के इर्द-गिर्द घूमना
शब्दों को अच्छा लगने लगा है।
धरती देती है स्वतंत्रता हरी घास को कि
वह अपनी नमी और भी गीली कर ले
ओस को निचोड़, चटक कर ले
अपने रंग को और भी गाढ़ा, इतना गाढ़ा कि
मिट्टी की गंध में उसकी ख़ुशबू श्रेष्ठ हो।
पक्षी का विचरण तय करे आकाश की सीमा
लौट आये पक्षी क्षितिज के पास से
अपनी चोंच में धर एक टूकड़ा बादल
जिसमें इन्द्रधनुष के केवल छह रंग हों।
नदी बहे अपने गीले किनारे छोड़
अपने आख़िरी सफ़र में तोड़ दे बाध्यता
सागर में विलीन होने को
कोयल की मीठी बोली में
पके नीम के कड़वे फल
युद्ध में हारकर लौटेंं घोड़ों के पदचाप
संधि कर लें भूमि की सतही ध्वनि से।
किसी भी साम्राज्य का पूर्ण हस्ताक्षर
जब हस्तान्तरित हो पत्थर की देह पर
शंख की ध्वनि का हस्तक्षेप
फिसल जाये पत्थर की काया से।
एक कवि जब आत्महत्या करे
किसी ऊँची पहाड़ी से
उसकी पीठ पर हो सिर्फ़
हरी घास का लेप।